SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १७. भिषसम्बन्धि प्रकीर्णक । प, अरे, अर, भ, १, १, ५, १, १ ... ... " अरे अरे अरे . यहां पहिले तीन पदों के घातमापक उत्तरोत्तर एक एक कर के न्यन होते गये हैं इसी क्रम से चतुर्थ आदि पदों को लिखने से उन का दूसरा रूप बनेगा। सो ऐसा अ, अ, अ, अ, अअअअ ... ... अर्थात् अ, १, १, ..... इत्यादिक पदों के क्रम से अ', अ', अ अ अ अ इत्यादिक रूपान्तर हैं । :: अनो, १ = अं,' - अअ. अमें, इत्यादि। इस से यह जान पड़ता है कि जहां अ° ऐसा चिह्न आवेगा तहां उस का मान १ है अर्थात् हर एक राशि का शन्य घात १ होता है । और इस से यह भी स्पष्ट सिद्ध होता है कि किसी पद के घातमापक का ऋण चिह्न पलट के उस को अंशस्थान से निकाल के छेदस्थान में वा छेदस्थान से निकाल के अंशस्थान में लिखने सकते हैं। __* अ = अ और श्र' = १ ये दो रूप प्रकारान्तर से भी सिद्ध हो सकते हैं सो ऐसे जब कि १ को किसी पद से दो बार गुण देओ तो गुणनफल उस पद का द्विघात अर्थात् वर्ग होता है, तीन बार गुण देो तो त्रिघात अर्थात् धन होता है, चार बार गुण देनी तो चतुर्यात होता है इत्यादि, तब इस से स्पष्ट है कि १ को अ से एक बार गुण देो तो गुणनफल श्र का एक घात होगा। परंतु १४ = श्र.:. अ = अ यों सिद्ध हुप्रा । इसी भांति १ को असे शून्य बार गुण देशी अर्थात् किसी बार न गुणो तो स्पष्ट है कि १ ज्यों का त्यों बना रहेगा इस लिये अ = १ इस से यह भी सुरंत सिद्ध होता है कि ० = १ अर्थात् शून्य का भी शून्यघात ? होता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020330
Book TitleBijganit Purvarddh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBapudev Shastri
PublisherMedical Hall Press
Publication Year
Total Pages299
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy