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श्रीदे● चैत्य० श्री - धर्म० संघाचारविधौ
॥ ६२ ॥
अइगरुय पुन पन्भारपरिगया, तत्रिवरीया पुण गुरुसमिद्धिनहि हे उमंतरेण कयावि किर जायए
क
संचितसुकृतभराणां जागर्त्ति सतां परं धर्मः
| पचति हि खलु पापिनां पापम् जं बोहिरयणरहिओ,
दिव्वस्स गई अहो दिव्वा सच्छंदपयाराओ सुहेण विलसंति बुद्धीओ
एतद्धि महापापं परो,
असुहाणं कम्माणं जं असुहो चेव जायइ विवागो ।
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३६१ | सन्चो पुव्वाणं कम्माणं पात्रए ३५१ | फलविचागं,
चलति कुलाचलचक्रं मर्यादां ३६२ | लंघयन्ति जलनिधयः
सो विरलो कोऽपि जणो दुहियं ३७४ | जणिऊण जो सुहिओ ३७४ | जातेति चिंता महतीति शोकः, ३७६ कस्मै प्रदेयेति महान् विकल्पः, ४०३ | निरवच्चा दहइ मणं विणहसीलावि देह दुखाई
गुणरिद्धी दूरं वडियावि अविणयपवणपडिहणिया नीहारहारधवलोsविवच्छ !
३१२ ४२०
४३७ | सच्छोवि सुगुणसमुदओ
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अञ्चतपियो जिपुरिसो विणयवजिओ दूरे
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दुव्वियत्तणदोसानि हमव
लोइऊण बुद्धीए विणयाओ हुंति गुणा गुणेहिं लोगोऽणुरागमुव्ह
विणया नाणं नाणाउ दंसणं दंसणाउ चारितं
चड नर्मताण गुणो आरूढगुणाण
होइ टंका
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सूक्तिसाक्षिमुखानि
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