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श्रीदे
चैत्यश्रीधर्म० संघाचारविधौ ॥९४॥
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विदिनसम्वस्से । गरुआण चलणसेवा कयावि नहु निष्फला होइ ॥५२॥ अविय-पहुणो अस्थि न अस्थि व इय चिंता नो कयावि ||नमिविनकायदा । किंतु विहेया सेवा सयकालं सेवगजणेण ॥ ५३ ।। सेवह गंतुं भरहं सामिस्स य नंदणोवि सामिछ। एवं पुणोवि धरणेण |
मिश्तं पभणिया ते उदाहु इमं ॥ ५४ ।। वच्छरियमहादाणेण पूरिउं सयललोयआसाए । पयलग्गधूलिलील जइवि चएसी य रजभर ॥५५।। वÉतो छउमत्थावत्थाए तहवि छउमपरिमुक्को । दुत्थियजणपत्थिअत्थसत्थचिंतामणी एसो ॥५६॥ ता हिय सामिमेरिसमनं सामि वयं नहु करेमो । को कप्पपायवं पाविऊण सेवेइ करीरतरूं? ॥५७॥ न य अभं पत्थेमो तिहुअणसामि इमं पमुत्तूण । किं वप्पीहो पीहइ जलधारं मुत्तु अन्नपि ।।५८॥ भदं भरहाईणं हवेउ किं तुइ इमीइ चिंताए । जमियाउ होइ पहुणोतं होउ परेण | किं अम्ह? ॥५९।। अवि-होइ थिराणं लच्छित्ति जिणसुई सुबए तओ अम्हे । होमो न उस्सुया जह मुद्धोकागीकयमऊरो॥६॥ |तहाहि-इह कोइ नरो आजम्म निद्धणो बालकालमयपियरो। भूरिविसएसु भमिओ विभूइहेउं न सा पत्ता ॥६१।। भणियं चदूरं वच्चइ पुरिसो हियए धरिऊण सयलसुक्खाई । तत्थवि पुवकयाई पुवगयाई पडिक्खंति ।।६२॥ कमि अरण्णे चिरजिष्णदेउले कोइऽणेण अह जक्खो। आराहिओ पयंपद बहूववासेहिं तं सुमिणे ॥६३॥ भो पइदिगमिह गमिही मुत्तु सिही कणगपिच्छमिकिकं । ताणि य कमेण गहिउं पभूयभूई भवेज सुही ॥६॥ किमिणंति व बुद्धो सो जा चिंतइ ता समागओ मोरो। सो सुचिरं नच्चिय | कणयपिच्छमिकं विमुत्तु गओ ॥ ६५ ॥ इस कइसु दिणेसु गएसु चिंतए स इह किच्चिरं वसिमो?। ता लहु एयकलावं एगसरं गहिय जामि गिहं ॥ ६६ ॥ तो चीयदिणे मुद्धो पिच्छकलावं स नच्चिए मोरे । जा गिण्हइ ता सहसा गओ सिही वायसीहोउं| ॥६७।। अतः पठ्यते-अत्वरा सर्वकार्येषु, त्वरा कार्यविनाशिनी । त्वरमाणेन मोण, मयूरो वायसीकृतः ॥६८॥ तो सो विल-10॥ ९४ ।।
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