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[ 161 ] + प्रते वारण सकइ । वली तु साधु पगिर सीदाइ ॥ रागता अध्यसाय नइ वसिइ ॥ वन गंध आभरण। स्त्रीयादि सिज्या आसन ॥ अठ ता भनीजे भोगवतानधीते त्यागो न कहीइ ॥ The Commentary ends Fol 34b.
___ ...सदानिरंतरं कषायरहित निरंतरं श्रीतीर्थंकर + + + विषद धूव योगी उचितनित्ययोगवंत ॥ हुइ षट् आवशक नई विषई ॥ पापो तइन ॥ + + + + बली सोभाहू ॥ गृहस्था लाके व्यापार ते प्रतिइ वर्जेइ तेसि खू कहिउइ ॥ सम्य कूदृष्टी सम्य + धारी हुइ। ज्ञानतप तथा संयम चारित्रए बिहुना फद छइ तेह नइ सह दहइ ॥ त करी पुराणा जूभा पाप तेहं नई दूरि करइ। मन वचनकायानइरू + परे संवरइ प्रवतावइ ते साधु कहि ।
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3046 पिंडनियुक्ति वृत्ति Pindaniryakti Vetti
Substance: Countrymade Paper ; Size: 104 in by 41 in ; Foll: 86 ; Seventeen Lines in a Page ; Character: Jaina Devanāgari ; Appearance: discoloured and very old ; Complete.
The Pindaniryukti Vrtti, a Commentary by Malayagiri on the Pindaniryukti, the second Müla Sūtra of the Jaina Sacred Canons (Abhidhānarājendra, p. 35).
The Ms begins Fol 1a.
___ + + + जयति जिनवर्द्धमान परहितनिरतो बिधुतकर्मरजाः। मुक्तिपथचरणपोषकनिरवद्याहारबिधिदेशी ॥ नत्वा गुरुपदकमलं गुरूपदेशेन पिंडनियुक्तिं। + + + + + + + + + स्पष्टशिष्यावबोधाय ॥
आह निर्युक्तयो न स्वतंत्रा शास्त्ररूपाः किं तत्सूत्रपरतंत्रास्तथा तत्व्युत्पत्त्याश्रयणात् ।। तथाहि सूत्रोपात्ता अर्थाः स्वरूपेण संबद्धा अपि शिष्यात् प्र + + ज्यते निश्चि + + वद्धा उपदर्य व्याख्यायंते यकाभिस्ता निर्युक्तयः। भवतापि च प्रतिज्ञायि पिंडनियुक्तिमहं विवृणोमि । तत एषा पिंडनियुक्तिः। कस्य सूत्रस्य प्रतिवद्धति उच्यते । इ + त दश + + न परिमाण शचुलिका युगलभूषितो दशवैकालिको नाम श्रुतस्कंध (१) च पंचममध्ययनं पिंडेषणानामकं दशवकालिकस्य च नियुक्लिश्चतुर्दशपूर्व विदा भद्रबाहुना
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