________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( ५५ )
वचन अगोचर दाख्या || तेहनो भाग अनंतमो, वचन पर्याये आरूपा ॥ २ ॥ वली कथनीय पदार्थनो ए, भाग अनंतमो जेह ॥
उदेपूरवमां रच्यो, गणधर गुण समनेह || ३ || मांहोमांहे पूरबधरा, अक्षर लाभे सरिखा || छठाण वडीया भावयी, ते श्रुत प्रतिय विशेखा ॥ ४ ॥ तेहिज माटे अनंतमे, भाग निवद्धा वाचा || समकित श्रुतना जाणीये, सर्व पदारथ साचा ॥ ५ ॥ द्रव्य गुण पर्याये करी, जाणे एक प्रदेश || जाणे ते सत्रि वस्तुने, नंदी सूत्र उपदेश || ६ || चोवीस जिनना जाणीए, चउद पूरवधर साध || नवशत तेत्री सहस छे, अठाणं निरुपाध ॥ ७ ॥ परमत एकांतवादीनां शास्त्र सकल समुदाय । ते समकितते ग्रह्मां अर्थ यथारथ थाय ॥ ८ ॥ अरिहंत श्रुत केवली कहे ए, ज्ञानाचार चरित्त || श्रुतपंचमी आराधवा, विजयलक्ष्मी सूरि चित्त ॥९॥ ॥ इति चैत्यवंदन ॥
॥ अथ तृतीय अवधिज्ञान चैत्यवंदन ॥
॥ अवधि ज्ञान त्रीजुं कहुँ, मगटे आत्म प्रत्यक्ष ॥ क्षय उपशम आवरणनो, नवि इंद्रिय आपेक्ष || १ || देव निश्य भव पामतां, होय तेहने अवश्य || श्रद्धावंत समय लहे, मिध्यात विभग वश्य || २ || नर तिरिय गुणथी कहे, शुभ परिणाम संयोग || काउसग्गमां मुनि हास्यथी, विघटयाते उपयोग ॥ ३ ॥ जघन्यथी जाणे जूए, रूपी द्रव्य अनंता ॥ उत्कृष्टा सवि पुद्गला, मूर्ति वस्तु
For Private And Personal Use Only