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( २१५ )
चोत्रीस अतिशयें करी विराजमान पांत्रीस गुणयुक्त वाणीए करी भाविक जीवोने प्रतिबोधे, सर्वत्र सर्व वस्तुना देखण हार, त्रिभुवनमां मांगळिकदायक, कल्पवृक्ष समान, सात भयथी रहित, त्रिभुवन गुरु, परम ठाकुर, दयावंत, जगतना बांधव, संसार समुद्रमां, द्वीप समान, त्रणे भुवनमां दीपक सरिखा,जगतमां चिंतामणीरत्न सरीखा, त्रिभुवनमा मुगट सरीखा जिनराज, मोक्षमार्गने विषे रथ समान, अशरणना शरणभुत, भवसंसारना भयटाळक, भाविक लोकोने प्रीति भोजन समान, आठ कमरुप अंगाध समुद्रतारण. वहाण समान, समयक्रिया अनुष्टानादिक गुगनी मंजुषा समान, जयवंता विषम जे कंदर्प तेनां जे बाण तेने वारवाने सनाह समान, एवा जे श्री अरिहंत भगवान तेने मारी ॥ क्रो० ॥ ॥ २३ ॥ हुं धन्य, हुं पुन्यवंत पवित्र थयो, मारो मनुष्यभव सफळ थयो, जे कारणे श्री वीतरागना चरणकमळनी मने भेट थइ. ए दिवस धन्य, कृतार्थ ए प्रहर मुमुहुर्त सुपवित्र जाणवो जे वेळा जगतगुरु जिनराजने हुँ भेटयो. आज मारे रत्नचिंतामणी कल्पवृक्ष; कामधेनु कामकुंभ ए सर्व सुर्लभ थयां, आजे मने अपूर्व वस्तु मळी, मारा मोटा भाग्यनो उदय थयो. अढार दोषरहित होय तेने तीर्थकर कहीये, रागद्वेष जीत्या छे जेणे तेने वीतराग कहीए, आठ कर्मना मंथनहार, मोक्षनगरना सार्थवाह, कर्मपीडा रहित एवा जगनाथने स्तवु छु. भरतक्षेत्रे अतीत चोवीशीमां प्रथम तीर्थकर, केव
झानी, निर्वाणी आदि तथा वर्तमान प्रथम ऋषभदेव प्रमुख चोवीस तीर्थकरने, अनागत चोवीसी श्री पद्मनाभ श्री श्रेणीक
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