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( १५८) श्रीपार्श्वनाथ जिन स्तवन।
(ढाल फागनी) 'चउ कषाय पाताल कलश जिहां, 'तिसना पवन प्रचंड । बहु विकल्प कल्लोल चढतुहे, आरति फेन उदंड ॥ भव सायर
भीषण तारीय हो, अहो मेरे ललना पासजी ॥ त्रिभुवन नाथ दिलमें ए विनती धारीयें हो ॥ १ ॥ जरत उदाम काम वरवानल, परत शीलगिरि शृंग ॥ फिरत व्यसन बहु मघर तिमिंगल, करत हे निगम उमंग ॥ भ० ॥२॥ भमरीयाके बीचिं भयंकर, उलटी गुलटी वाच ॥ करत प्रमाद पिशाचन सहित जिहां, अविरति व्यं. तरी नाच ॥ भ०॥३॥ गरजत अरति फुरति रति बिजुरी, होत बहुत तोफान ॥ लागत चोर कुगुरु मलवारी, धरम जिहाज निदान ॥ भ० ॥४॥ जुरे पाटिये जिउं अति जोरि, सहस अढार श्रीलंग ॥ धर्म जिहाज तिउं सज करि चलवो, जश कहे शिवपुरी चंग ॥ भ० ॥५॥
श्रीमहावीर जिन स्तवन । दुख रलियां मुख दी मुज सुख उपनारे, भेट्या भेटया वोर जिणंदरे ॥ हवे मुज मन मंदिरमा प्रभु आवी वसोरे, पा, पासु परमानंद रे॥ दु०॥१॥ पीठबंध इहां कीघो समकित वचनोरे,
१ क्रोध, मान, माया, लोभ. २ कृष्ण. ३ बीहामणो.
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