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प्रस्तावना.
॥अर्हतो ज्ञाननाजः सुरवरमहिताः सिधिसौधस्थसिधाः पंचाचारप्रवीणाः प्रगुणगणधराः पाठकाश्चागमानां ॥ लोके लोकेश वंद्याः सकलयतिवराः साधुधर्माजिलीनाः पंचाप्येते सदाप्ताः विदधतु कुशलं विघ्ननाशं विधाय ॥१॥ कृपाचन्न सूरे जगति यशसा ते धवलिते, पयः पारावारं करिवरमजौमं कुलिशनृत् ॥ कपदीं कैलासं सुरवरः सुधां च मृगयते कलानाथं राहुः कमललवनो हंसमधुना ॥२॥ सुझसें सुम जो गुणसंघात उसके ग्रहणकरणेंमें विचक्षण र रत्नोंकी खाणसमान अहो सजनों सर्व आपलोक सावधान होकर श्रवण करो कि इस बृहत् स्तवनावलिनामक अत्युत्तम ग्रंथमें सर्वत्र पृथिवी मंगलमें (याने ) सर्व दुनियामें बहुत प्रतिष्ठाको प्राप्त करने वालें श्रतएव बहुत बमी है कीर्ति जिणोंकी और विधानोंमे शिरोमणी एसे अनेक गीतार्थोके रचे हुवे और बहुततर बोधके देनेवाले
और अत्यंत सुगम प्राचीन याने जूने जूने बम बमे बहुत स्तवनोंका तथा सिकायोंका संग्रह इस ग्रंथमें है इस सिवाय और नि बहुत संग्रह है इसवास्ते हेगुणरागि सजनो। आपलोक इस ग्रंथकुं पढके याने कंठस्थ करके निर्मल ज्ञानके जजने वाले होवो और इस ग्रंथके उपवारोंमें युग प्रवरागम श्री श्री १००८ श्री श्री मजिनकृपाचजसूरीश्वरजीकी शिषनी आर्या श्रीमती
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