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(२७१) धीरा तुं प्रनु तारक ने वमवीरा ॥ १७ ॥ तुम जेसें वम लाग जपायो । तो मेरो कारज चढ्यो सवायो । कर जोमी प्रनु वीनवु तोसुं। करो कृपा जिनवरजी मोसु ॥ १ए ॥ जनम मरण निवारो तारो। नवसागरथी पार उतारो । श्रीहथणा पुर मंगण सोहे । तिहां जिन शांति सदा मन मोहे ॥ २ ॥ पद्मसूरि गुरूराजपसाये श्रीगुणसागरके मन लाये । जे नर नारि श्क चित गावे मन वंचित फल निश्चै पावे ॥ २१॥ इति श्रीशांतिजिनवृद्ध स्तवनं संपूर्णम् ॥ ॥ अथ श्री १२ मा वासुपुज्य भगवाननो
स्तवनं लिख्यते ॥ ॥ वीरजी आयारे चंपावनके मेदान ॥ ए देशी ॥ नवियण ध्यावो रे । वासु पूज्य गुण खाण वंचित पावोरे । जिनवर चतुर सुजाण ॥ ज० ॥ ए आंकणी ॥ अंगदेश चंपा नयरि सोहंत । जयदेवीना जात कहंत वसु पुज्य राजाकुल दीवंत । चलदे सुपनारे देखे मात सुजाण । गर्जमां इंधेरे पूज्या जिनवर जाण ॥ ज० ॥१॥ एहथी वासु पूज्य दियोनाम । मातापिताना वंचित काम सहु जनगावे गुण अनिराम । योवन वयमारे संयमलीनो सुजाण । चारित्र पालिरे पाम्यो केवल नाण ॥ नवि० ॥२॥ संघ चतुरविध थाप्यो मुनीश लविजन तास्या विचरि जगीश । बोधबीज विस्तारि ईश । चंपापुरि आव्यारे । कीधो अणशण जाण । मुक्ति पद पायारे । सासनके सुलतान ॥ नवि० ॥ ३ ॥ देरासर त्रण जूमि मनुहार । लुयरेमां आदिनाथ जुहार । मध्यमां बारम
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