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(१७३) पसि नविनां पंचमीवासरस्य ॥२॥ पीत्वा नानाविधार्थी मृतरसमसमं यांति यास्यंति जग्मुः। जीवा यस्मादनेके विधि वदमरतां प्राज्यनिर्वाण पुर्याम् । यात्वा देवाधिदेवागमदशम सुधा कुंम मानंद हेतु । स्तत्पंचम्या स्तपस्युद्यत विशदधियां नवीनामस्तु नित्यं ॥ ३ ॥ स्वणालंकार वटगन्मणि किरण गणध्वस्त नित्यांधकारा । ढुंकारा रावदूरी कृत सुकृत जनवातविघ्न प्रचारा । देवी श्री अंबिकाख्या जिनवर चरणांनोज जंगी समाना । पंचम्यन्ह स्तपोयं वितरतु कुशलं धीमतां सावधान ॥४॥ इति शुभ संपूर्णम् ॥ ॥अथ रांदेर श्री ऋषभ जीणचैत्य प्रतिष्ठा
स्तवनं लिख्यते ॥ (राग)सारंग। झपन चरण कज ध्यावो मन जमरा क्षणापरमानंद रस पावो ॥ मन न ॥ अषण ॥१॥ अपर कमल तुहिन संयोगे । मुजित होय कमलावे ॥ म० ॥२॥ प्रनुपद पंकज अहनिशि विकसे । तेहथी चित ललचावे ॥ मन न० ॥३॥ चंडविकासी कुमुद कुमुदनी । दिनमे ते मुरकावे ॥ म० ॥ ॥४॥ जिनपादांबुज निरुपमदेखी । अंतर ज्योति जगावे ॥ म ॥ ३० ॥ ५॥ तन मन थिर कर जिन कज ध्यावे । रूपातीत सुख पावे ॥ म ॥ २० ॥ ६॥ प्रथम जिनेसर प्रथम धराधिप प्रथम मुनि जग गावे ॥ म ॥ ॥ ७ ॥ प्रथम जगत गुरु जिन उपगारि । प्रजापति नाम धरावे ॥ म ॥ ३० ॥७॥ महा गोप महा माहन प्रनु जी। नव अटवी सत्थ वाहक हावे ॥म०॥०॥ ए॥ जव जलधि निर्यामक जगपति
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