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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१७३) पसि नविनां पंचमीवासरस्य ॥२॥ पीत्वा नानाविधार्थी मृतरसमसमं यांति यास्यंति जग्मुः। जीवा यस्मादनेके विधि वदमरतां प्राज्यनिर्वाण पुर्याम् । यात्वा देवाधिदेवागमदशम सुधा कुंम मानंद हेतु । स्तत्पंचम्या स्तपस्युद्यत विशदधियां नवीनामस्तु नित्यं ॥ ३ ॥ स्वणालंकार वटगन्मणि किरण गणध्वस्त नित्यांधकारा । ढुंकारा रावदूरी कृत सुकृत जनवातविघ्न प्रचारा । देवी श्री अंबिकाख्या जिनवर चरणांनोज जंगी समाना । पंचम्यन्ह स्तपोयं वितरतु कुशलं धीमतां सावधान ॥४॥ इति शुभ संपूर्णम् ॥ ॥अथ रांदेर श्री ऋषभ जीणचैत्य प्रतिष्ठा स्तवनं लिख्यते ॥ (राग)सारंग। झपन चरण कज ध्यावो मन जमरा क्षणापरमानंद रस पावो ॥ मन न ॥ अषण ॥१॥ अपर कमल तुहिन संयोगे । मुजित होय कमलावे ॥ म० ॥२॥ प्रनुपद पंकज अहनिशि विकसे । तेहथी चित ललचावे ॥ मन न० ॥३॥ चंडविकासी कुमुद कुमुदनी । दिनमे ते मुरकावे ॥ म० ॥ ॥४॥ जिनपादांबुज निरुपमदेखी । अंतर ज्योति जगावे ॥ म ॥ ३० ॥ ५॥ तन मन थिर कर जिन कज ध्यावे । रूपातीत सुख पावे ॥ म ॥ २० ॥ ६॥ प्रथम जिनेसर प्रथम धराधिप प्रथम मुनि जग गावे ॥ म ॥ ॥ ७ ॥ प्रथम जगत गुरु जिन उपगारि । प्रजापति नाम धरावे ॥ म ॥ ३० ॥७॥ महा गोप महा माहन प्रनु जी। नव अटवी सत्थ वाहक हावे ॥म०॥०॥ ए॥ जव जलधि निर्यामक जगपति For Private And Personal Use Only
SR No.020135
Book TitleBruhat Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrachin Pustakoddhar Fund
PublisherPrachin Pustakoddhar Fund
Publication Year1920
Total Pages345
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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