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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ११४ ) तेरे कोइ न साथी | साथी दान अरु ध्यान ॥ ६० ॥ ३ ॥ शा त्रिशनां विकथा निद्रा कुमता रूप निधान । दिन दिन वधे पापकी संगत। यामें क्रोध अरु मान ॥ ५० ॥ ४ ॥ चलते फिरते सोवत जागत । करत खाण अरु पाए । बिन बिन घटत है तेरे | होत देहकी हाए || द० ॥ ५ ॥ माल मुलक सुख संपत में । होय रह्या गुलतान देखत देखत विनस जायगा । मतकर मान गुमान ॥ ५० ॥ ६ ॥ वा सब यह जगत पसरा । नारी विषकी खान । माया ममता आदिके वैरी । इनसें कहा पहचान || द० ॥ ७ ॥ पांचू चोर मूंसें घर तेरो । इनकी खोटी वाण | आठ वैरी तेरे संग फिरतु है । मोह वा सुलतान || द० ॥ ८ ॥ कोइ रहाणें पावे नहीं जगमें । यह तुं निच्चै जान । अज हुं बांकि समकि कुटलाई । मूरख तर अज्ञान || द० ॥ ए ॥ जाई बंध अरु सजन संबंधी । राखे तेरा मान । अंतसमें कोई काम न खावे । किसपे मान गुमान ॥ ६० ॥ १० ॥ जप तप शील पालो सुन संगत । देह सुपात्रे दान । सुविहित साध चरण चितस्यावो | प्रभु जज तज अभिमान ॥ ० ॥ ११ ॥ इति उपदेस सजाय संपूर्णम् ॥ जं जं विदिणा लिहि । तं तं परिणमई सयक्ष लोयस्स । इह जाये विणु धीरा । विदुरेवि न कायरा हुंति ॥ १ ॥ ॥ अथ बाहूबलजीनी सझाय लिख्यते ॥ ईडर आंबा आंबलीरे ॥ ए चाल बाहुबलि चारित्र लीयोरे । साचो धरि वैराग । जरते सर इम वीनवेरे । वारवार पाय लाग । हरष जर मुकसुं बोल For Private And Personal Use Only
SR No.020135
Book TitleBruhat Stavanavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrachin Pustakoddhar Fund
PublisherPrachin Pustakoddhar Fund
Publication Year1920
Total Pages345
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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