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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (58) यहां लाभ का प्रयोग व्यापक अर्थ में किया गया है । अतः जिस प्रकार अर्थ लाभ के प्रश्न में एकादश (लाभ) भाव के स्वामी के साथ लग्नेश के सम्बन्ध होने पर अर्थ लाभ का विचार किया गया है । उसी प्रकार चतुर्थ स्थान के स्वामी के साथ लाभेश का सम्बन्ध होने पर, भूमि, मकान या वाहन का लाभ; पंचमेश के साथ सम्बन्ध होने पर सन्तति - लाभ; सप्तमेश के साथ सम्बन्ध होने पर स्त्री- लाभ और दशमेश के साथ सम्बन्ध होने पर पद या उपाधि लाभ का भी विचार किया जाता है । उक्त योग यदि वर्तमान समय में बनता हो तो सद्यः लाभ होता है । किन्तु यदि भविष्यत् काल में बनने वाला हो तो भविष्यत काल में लाभ होगा । पञ्चांग के माध्यम से लग्नेश और लाभेश का गोचरीय क्रम से योग जान लेना चाहिए । फिर देखना चाहिए कि लाभ स्थान पर चन्द्रमा की दृष्टि किस दिन पड़ रही है । इस रीति से पंचांग की सहायता से यह निश्चय किया जा सकता है कि लाभ अमुक दिन होगा । इस सन्दर्भ में कुछ विद्वानों का कहना है कि लग्नेश और लाभेश का योग किसी भी स्थान में हो वह लाभकारक होता है । किन्तु इस विषय में हमारा अनुभव यह है कि इन दोनों का योग जब लग्न या लाभ स्थान में होता है तब शीघ्र एवं प्रचुर मात्रा में लाभ होता है । यदि यह योग षष्ठ, अष्टम अथवा द्वादश स्थान में हो तो लाभ नहीं होता तथा शेष स्थानों में लाभ की मात्रा कुछ कम एवं समय अधिक लगता है । लाभ स्थान से चन्द्रमा का सम्बन्ध होना प्रत्येक स्थिति में अनिवार्य है । लाभ कब होगा ? यह निश्चय करने के लिए एक उदाहरण देखिये : किसी व्यक्ति ने २३ जून, १६७५ को सिंह लग्न For Private and Personal Use Only
SR No.020128
Book TitleBhuvan Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmaprabhusuri, Shukdev Chaturvedi
PublisherRanjan Publications
Publication Year1976
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
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