SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 67
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६७ ) मात्रा में वृद्धि की कल्पना की गई हैं । कुल शुभ ग्रहों की संख्या ग्रन्थकार के अनुसार चार है । अतः यदि लग्न को लग्नेश तथा चारों शुभ ग्रह देखते हों तो योग या फल की मात्रा पूरी माननी चाहिए । श्लोक ६५ एवं ६६ में योग या फल की मात्रा त्रिभागोन एवं पूर्ण शुभ ग्रहों की संख्या चार मानकर ग्रन्थकार ने निर्धारित की है । किन्तु बुध और चन्द्रमा परिस्थितिवश पाप ग्रह भी होते हैं ज्योतिषशास्त्र के अधिकांश आचार्य प्रायः इस मत से सहमत हैं । अतः हमारा मत यह है कि लग्न पर लग्नेश तथा दो या अधिक ग्रहों की दृष्टि होने पर फल या योग को पूर्ण माननी चाहिए न कि त्रिभागोन । मैं एक अन्य बात की ओर भी विद्वानों का ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं । वह है लग्न पर लग्नेश तथा चार शुभ ग्रहों की दृष्टि होने पर पूर्ण फल की कल्पना । यदि लग्न को देखने वाले इन चार ग्रहों में से दो ग्रह चन्द्रमा और बुध परिस्थितिवश पाप हो, तो क्या फल और योग पूर्ण होगा ? क्योंकि मूलश्लोक में ग्रन्थकार ने १. (i) क्षीणेन्द्र कमही सुतार्कतनयाः पापा: वुधस्तैर्युतः । (ii) शशिजोऽशुभसंयुक्तः क्षीणश्च निशाकरः पापः । वराह मिहिर For Private and Personal Use Only - कल्याण वर्मा (iii) क्षीणेन्द्वर्क कुजाहिकेतुरविजाः पापः सपापश्च वित् । मन्त्रेश्वर (iv) क्रूरग्रहाः कुजदिवाकरसूर्यसू तुक्षीणेन्दव सहित तैस्तु तथा बुधः स्यात् । - गुणाकर
SR No.020128
Book TitleBhuvan Dipak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmaprabhusuri, Shukdev Chaturvedi
PublisherRanjan Publications
Publication Year1976
Total Pages180
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy