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( १५७ )
३४. अथ देवदोषद्वारम्
मूर्ती छिद्र द्वादशेऽकों व्यये कर्मणि भूसुतः। षष्ठान्त्याद्याष्टमश्चन्द्रो व्ययास्ते शेष खेचराः॥१५८॥ क्षेत्राधिपाकाशदेवी शाकिन्या घाश्च देवताः।
देवदोषाम्बु देवात्मव्वंत्तरामिहरादय ॥१५६॥ अर्थात् लग्न, अष्टम या द्वादश स्थान में सूर्य, द्वादश या दशम स्थान में मंगल, षष्ठ, व्यय, लग्न या अष्टम में चन्द्रमा और शेष ग्रह व्यय या सप्तम स्थान में हों तो क्षेत्रपाल, आकाश देवी, शाकिनी आदि. देव दोष, जलदेव, आत्मा एवं प्रेतादि की बाधा होती है।
भाष्य : आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक तीनों प्रकार के दुःख या कष्टों का कारण हम पर सदैव पड़ने वाला ग्रहों का प्रभाव है। ग्रह अपनी प्रकाश रश्मि एवं गुत्वाकर्षण रश्मियों द्वारा हम पर सदैव प्रभाव डाल रहे हैं। यह प्रभाव इतना सूक्ष्म होता है कि इसे हम तुरन्त अनुभव नहीं कर पाते। आयुर्वेद के सुप्रसिद्ध-ग्रन्थ रत्न भाव प्रकाश में कहा गया है कि "जिस प्रकार दर्पण में छाया, प्राणियों सर्दी और गर्मी, सूर्यकान्त मणि में सूर्य का तेज प्रवेश करता है, किन्तु दिखलाई नहीं देता। उसी प्रकार शरीरधारियों में (अज्ञात रूप से) ग्रहों का प्रभाव प्रवेश करता है।" इसलिए ग्रह स्थिति के आधार पर त्रिविध दुःखों का निदान किया जाता है।
रोग, भय, मृत्यु, सन्तान एवं लाभादि में किस देवता का दोष है ? यह जानने के लिए ग्रन्थकार ने उक्त दो श्लोकों में कुछ योगों का विचार किया है। यदि प्रश्न कुण्डली में सूर्य लनर
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