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प्राचीन ब्राह्मी का पता और पहले से था। (इ.ऐ. XIV, 331) इसमें इस प्रवृत्ति के दर्शन नहीं होते। इसके अतिरिक्त दूसरे प्राकृत-लेखों में, जिनमें कुछ अपेक्षाकृत अधिक प्राचीन भी हैं, पंडितों की ध्वनिशास्त्र और व्याकरण-सम्मत हिज्ज का धुंधला आभास हमें मिलता है। अशोक के शाहबाजगढ़ी के आदेशलेखों में कभीकभी म्म, (देखिए ऊपर 9, आ, 4), नासिक अभिलेख सं. 14, 15 और कुड़ा सं. 5 में सिद्ध तथा कण्हेरी सं. 14 में आय्यकेन शब्द मिलते हैं ।133 नियमों में ऐसे अपवाद यह बतलाते हैं कि लेखकों ने अब थोड़ी बहुत संस्कृत सीख ली थी। इसका प्रमाण यह भी है कि जिस व्यक्ति ने कालसी के आदेशलेखों का मसौदा बनाया था वह बम्भने के स्थान पर पालि में बेतुके बह्मने शब्द का प्रयोग करता है (कालसी आदेश-लेख XIII, पंक्ति 39) ।
घसुंडी (नागरी) के अभिलेख को छोड़कर मिश्र भाषा के सभी लेखों में व्यंजन द्वित्व के उदाहरण मिलते हैं। कभी-कभी तो वहाँ भी जहाँ इसकी जरूरत ही नहीं । पभोस सं. 1 में बहसतिमित्यस और कश्शपीयानं है । सं. 2 में तेवणीपुत्त्यस्य है। नासिक सं. ५ में सिद्धम् और कार्ले सं० 21 में सेतफरणपुत्रस्य मिलते हैं ।134 मथुरा के जैन अभिलेखों में भी ऐसे अनेक उदाहरण हैं ।135 इस काल के केवल दो संस्कृत अभिलेखों का पता है। इनमें एक है रुद्रदामन की गिरनार-प्रशस्ति और दूसरा कण्हेरी सं. 11150 । इनमें भी ध्वनि और व्याकरण सम्मत वर्तनी मिलती है । अनुस्वारों के प्रयोग में कुछ विशृंखलता जरूर है। उदाहरणार्थ; प्रतानां (गिरनार प्रशस्ति 1, 2), संबंधा ( 1, 12)। यह विशृंखलता चालू वर्तनी के प्रभाव का परिणाम है । किन्तु ऐसे प्रयोग पंडितों की लिखी अच्छी से अच्छी पुस्तकों में भी हैं। इसलिए वर्तनी की जिन विशिष्टताओं की अभी-अभी चर्चा की गई है, उनका लिपि के विकास से कोई संबंध नहीं है। इनसे तो यही पता चलता है कि आधुनिक काल की भाँति प्राचीन भारत में भी पंडितों की वर्तनी और क्लर्कों की वर्तनी में अंतर था और आज की भाँति ये दोनों पद्धतियाँ एक-दूसरे को प्रभावित करती रहती थीं।
एक दूसरी विशिष्टता137 जो अनेक प्राकृत और मिश्र-भाषा में अभिलेखों
133. ब., आ. स. रि. वे. ई. IV, फल. 45 और 52; V फल. 51. 134. ए. ई. II, 242; ब., आ. स. रि. वे. ई. IV, फल. 52 और 54. . 135. ए. इ. I, 371 तथा आगे; II, 195 तथा आगे 136. ब., आ. स. रि. वे. इं. 1I, फल. 14; V, फल. 51 137. बु. इ. स्ट. III, 2, 43, टिप्पणी 3.
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