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भारतीय पुरालिपि-शास्त्रं के एक स्तूप से निकले भोजपत्र के एक छोटे-से टुकड़े पर100 और खोतन से प्राप्त धम्मपद की भोजपत्र पर लिखी पुस्तक पर मिली है। धम्मपद की यह प्रति संभवत: कुषान-काल में गांधार में लिखी गई थी। इस पुस्तक में जिस उपभाषा (dialect) का प्रयोग हुआ है वह अशोक के शाहबाजगढ़ी के आदेश-लेखों की उपभाषा से काफी मिलती-जुलती है। वारडक कलश के अक्षरों से इसके अक्षरों का निकट का साम्य है 101 धातुपट्टों और वर्तनों पर अक्षर कतारों में विदुओं से बनाये गये हैं या पहले इस रूप में आहत करके (punched) फिर स्टाइलस से खरोंच दिये गये हैं ।108 प्रस्तर कलशों पर अक्षर कभी-कभी रोशनाई से भी लिखे गये हैं 1103
यद्यपि उत्कीर्ण प्रलेखों में भी खरोष्ठी का उपयोग हुआ है पर यह लोकप्रिय लिपि थी, विशेषकर लिपिकों और व्यापारियों के इस्तेमाल की। इस कथन के प्रमाण हैं इसके अक्षर जो हमेशा अत्यंत घसीट कर लिखे मिलते हैं, इसमें दीर्घ स्वर नहीं हैं, जिनकी रोजमर्रा के इस्तेमाल में कोई जरूरत नहीं, इसमें अल्पप्राण व्यंजन-द्वित्वों के स्थान पर अकेले व्यंजन का प्रयोग होता है (क्क के स्थान पर क), अल्पप्राण और महाप्राण व्यंजनों के संयोग में केवल पिछले का प्रयोग होता है (क्ख के लिए ख) और स्वरहीन माध्य अनुनासिकों के लिए सर्वदा अनुस्वार का प्रयोग मिलता है 1101 खोतन की हस्तलिखित प्रति का पता लग जाने पर अब इस अनुमान की संभावना बहुत कम रह गई है कि पूर्णता में ब्राह्मी से मिलता-जुलता ब्राह्मण शास्त्रों के लिए अधिक उपयोगी खरोष्ठी लिपि का कोई दूसरा रूप भी रहा होगा।
100. वि., ए. ऐ. फल. 3 पृष्ठ 54 पर सं. 11; ऐसे ही उपादान अन्य स्तूपों में भी मिले हैं, देखि. वही, 60, 84, 94, 106; किंतु ब्रिटिश म्युजियम में इसके जो टुकड़े बतलाये जाते हैं उन पर कोई अक्षर नहीं है।
101. afa. Oldenberg, Predvaritelnae zamjetkao Budhiiskoi rukopisi, napisannoi pismenami Kharosthi, St. Petersburg, 1897 और Senart, Acad. des Inscrs, r.ndus, 1897, 251 तथा आगे ।
102. ई. ऐ. X, 325 103. वि. ए. ऐ. 111 104. बु., इं. स्ट. III, 2, 97 तथा आगे ।
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