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भारतीय पुरालिपि-शास्त्र 4000=रो-कि (III), या धु-कि (IV), 6000=रो-फर (III), 8000=धु-ह, (IV), या चु-पु (XVI)।
10000=रो-ठू (III), 20000-रो-ठ (III), 70000=धु, जिसमें 70 के लिए एक घसीट चिह्न है ।
ऊपर के व्योरों से पता चलता है कि (1) 100 के लिए सभी कालों के अभिलेखों में, यहाँ तक कि अशोक के आदेशलेखों में भी हस्तलिखित ग्रंथों से भिन्न चिह्न मिलते हैं। इनमें स्पष्ट अक्षरों के साथ-साथ इसके अनेक घसीट रूप या इरादतन रूपांतर मिलते हैं और कि 50 और 60 के लिए पुराने अभिलेखों में कोई वास्तविक अक्षर नहीं मिलते। .
(2) शुरू से ही 7, 9, 30, 40, 80, 90 को छोड़कर अक्षरों के उच्चारणगत मूल्य बदलते हैं और अनेक बार, जैसे 6, 10, 60, 70, 100, 1000 में तो परिवर्तन काफी बढ़ जाते हैं ।
(3) अनेक बार, जैसे 10, 60, 70 में, अभिलेखों और हस्तलिखित ग्रंथों में अक्षर उन चिह्नों से निकलते हैं जिनका उच्चारणगत कोई मूल्य नहीं होता।
एक ओर तो तथ्य की ये बातें हैं, और दूसरी ओर यह बात भी है कि प्राचीनतम रूपों के बारे में हमारा ज्ञान अपूर्ण है । अतः इस समय इस प्रणाली की उत्पत्ति का खुलासा देना अत्यंत कठिन हो जाता है। भगवानलाल इन्द्राजी ने सबसे पहले इस समस्या के समाधान का यत्न किया था। उनका अनुमान था कि ब्राह्मी के संख्याकों का मूल भारतीय है। इनके ये रूप संकेत के लिए मात्रिकाओं के विलक्षण इस्तेमाल और कतिपय संयुक्ताक्षरों की वजह से हैं । किन्तु उन्होंने यह भी कह दिया था कि इस प्रणाली की कुंजी उन्हें नहीं मिल पायी है। 1877 में मैंने उनसे सहमति प्रकट की थी। मेरी तरह कर्न ने भी उनसे सहमति प्रकट की394 पर उन्होंने बतलाया कि 4 और 5 के अंक लकीरों को इस प्रकार जोड़ देने से बने हैं ताकि अक्षर बन जाय । किंतु, बर्नेल ने इनसे पूर्ण मतभेद प्रकट किया है। वे यह नहीं मानते कि पुराने 'गुफा-संख्यांक'-बिरले अपवादों को छोड़कर--अक्षरों से मिलते-जुलते हैं। वे जोर देकर कहते हैं कि ऐसा कोई सिद्धांत ढूंढ़ निकालना असंभव है जिससे यह दिखलाया जा सके कि हस्तलिखित ग्रंथों के अक्षरों से संख्यांक कैसे बने । उन्होंने यह भी बतलाया है कि हिंदुओं की भारतीय प्रणाली और मिस्रियों की
394. ई. VI, 143
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