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जंगमपेट की लिपि
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ये है, य्य (40) का द्विपक्षीय निचला य, और श्री ( 41 ) में आड़े डंडे वालाश (पिला. 35, III - V ) । स्त. XV, XVI से मिलते-जुलते अलंकृत रूप पुळुमायि के कार्ले अभिलेख सं. 20, 22 और उसके बेटे वासिठीपुत सातकणि की रानी के मंत्री के कण्हेरी के से. 11 के अभिलेख में भी मिलते हैं । इन लेखों की तिथियाँ अंदाजन निश्चित हैं । इनमें पहले दो अभिलेखों में त का एक फंदेदार रूप मिलता है और णका रूप स्त. XVII जैसा है । तीसरे में पश्चिमी क्षत्रपों के अभिलेखों के साफ-सुथरे अक्षर मिलते हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि ईसा की दूसरी शती में पश्चिमी डेक्कन और कोंकण में ये तीनों विभेद गड्डमड्ड रूप में इस्तेमाल में आते थे । 199 अमरावती स्तूप के अभिलेखों 18 यह सिद्ध होता है कि भारत के पूर्वी तट पर भी ये तीनों रूप प्रचलित थे । एक ओर तो अपेक्षाकृत अधिक विकसित प्रकारों का इस्तेमाल और साथ ही अपेक्षाकृत अधिक पुरागत रूपों के साथ अधिक विकसित रूपों की मिलावट करके भी इस्तेमाल करने का क्या कारण है, इसका खुलासा इस प्रकार हो सकता है कि लेखक अभिलेखों में पुराने और स्मारक रूप रखने की इच्छा तो करते थे, पर इस इच्छा का पूर्ण रूपेण पालन वे नहीं कर पाते थे । ऐसा यहां ही नहीं अन्यत्र भी हुआ है ।
( इ.) जग्गयपेट के अभिलेखों की लिपि : फलक III
पूर्वी तट के कृष्णा जिले में एक और अलंकृत लिपि मिलती है । यह इक्ष्वाकु राजा सिरि वीर पुरिसदत्त के समय के जग्गयपेट के अभिलेखों (स्त. XVII, XVIII) और अमरावती के अभिलेखों 190 में प्राप्त होती है । इस लिपि का
188. मिला. ब., आ. स. रि. वे. इं. जिल्द IV, फल. 45, कुडा सं. 1218; फल. 46, कुडा सं. 20-28, महाद सं. 1-4; कोल सं. 3, 5, फल. 47, वेडसा सं. 1-3; फल. 48, कार्ले सं. 15-18; शैलारवाडी सं. 19; जुन्नार सं. 1. 2; फल. 49-51, जुन्नार सं. 4-34; फल 52, नासिक सं. 6 अ; फल. 54, जुन्नार सं. 32; कार्ले सं. 20; फल. 55, नासिक सं. 17-19, 21-24; और जिल्द V, फल, 51, कण्हेरी सं. 2-5, 10, 12-14 की प्रतिकृतियों से ।
56,
189. ब., आ.स.रि. सा. इं. I, 57, फल. 58, सं. 23-24, 37; फल. 59 सं. 39, 48 फल. 60 से 51-53, 55, 56; और क., क्वा. ऐ.ई. फल. 12 और ज.बा.बा. श. ए. सो. XIII, फल. 3 के आंध्र सिक्कों की अनुकृतियाँ ।
190. ब., आ. स. रि. वे इं. I, फल. 58, सं. 35, 36; फल. 59, सं. 38, 40-42; फल. 60, सं. 46; फल. 61, सं. 54; फल. 62.
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