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मालवा और गुजरात के क्षत्रपों की लिपि सबसे पहले इन्हीं अभिलेखों में मिलता है ।178 इन लेखों में अक्षरों की लकीरें चौड़ी और सिरे मोटे हैं। इनसे पता चलता है कि इनमें किसी ऐसी लिपि का अनुकरण किया गया है जो स्याही से लिखी जाती थी।
20. दक्षिणी शैली की पुरोगामी लिपियां अ. मालवा और गुजरात के क्षत्रपों की लिपि : फलक. III __ जैसे ईसा की पहली और दूसरी शताब्दियों में उत्तरी भारत के अभिलेखों में एक स्थानीय शैली के विकास की शुरुआत दिखाई देती है, वैसे ही पश्चिम
और मध्यभारत तथा डेक्कन के अभिलेखों में भी उत्तरकालीन दक्षिणी लिपि के विकास का पहला चरण मिलता है। चष्टन के वंशज मालवा और गजरात के क्षत्रपों के अभिलेखों और सिक्कों में पश्चिमी लेखन-शैली दिखाई देती है । स्त. VI की लिपि जो रुद्रदामन (लग. 160 ई.)179 की गिरनार प्रशस्ति से ली गई है इसका एक नमूना है। यह लिपि उत्तरकालीन लिपियों से (देखि. आगे 27) निम्नलिखित बातों में मिलती-जुलती है :
1. अ और आ (1,2), क (7), ञ (15), र (32) और उ और ऊ की मात्राओं (इस फलक में नहीं हैं) के अंत में भंग हैं ।
2. ड (18) की पीठ गोली है। 3. ब (28) में बाईं ओर गाँठ है। 4. ल (33) में खड़ी लकीर बाईं ओर झुकी है। 5. ऋ की मात्रा (देखि. सृ, 37) को र से अलग पहचानना मुश्किल है।
दूसरे अक्षरों में कुछ तो शोडास के लेखों से मिलते-जुलते हैं, जैसे श (35) और ल्य (42) का त्रिपक्षीय नीचे का य; और कुछ कुषान शैली से, जैसे ख (8), न (25) जिसमें नीचे की आधार रेखा मुड़ी है, य (31) जिसमें बाएं भंग है और व (34) जो अक्सर गोला मिलता है । 2 (16) का रूप विलक्षण है। ऊ की मात्रा जो केवल नू (25) और रू (मिला. फल. VII, 33, III) में मिलती है और यौ (31) में औ की मात्राएं सर्वथा नई हैं । यह पहली बार यहीं मिलती हैं। ये रूप घसीट कर लिखने के कारण बने हैं।
178. उदाहरणार्थ मिला. ए. ई. I, 382, सं. 3 के नः से।।
179. भंडारकर : अर्ली हिस्ट्री आफ डेक्कन, 2, 26 तथा आगे; क., क्वा..मि. इं. 3-5; भगवानलाल, ज. रा. ए. सो. 1890, 642; और देखि० Buhler Die ind. Inschr. u. das Altr. d. ind. Kunstpoesie. 46 TT आगे।
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