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________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री० अए प्रकार पूजा ॥३६ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अब वह ] लीलावती तीनों संध्या काल में उत्तम, सुगन्धित पुष्पों से पूजन करने लगी। प्रतिदिन श्री जिनराज के विम्ब (मूर्ति) पर अत्यन्त अनुराग बढ़ने लगा । वह जिनमती माता पिता और भाई से मिलने की उत्कण्ठा करती हुई अपने पति की आज्ञा लेकर उत्तर मथुरा नगरी में पिता के घर पर आई। लक्ष्मी के समान उसका रूप देख कर माता पिता आदि परिवार के लोग उससे मिले और प्रसन्न हुए वह भी प्रति दिन पुष्पों से श्री जिनराज की पूजा करती थी। एक दिन उस के भाई ने इसको पूछा है बहिन इस पुष्प पूजा का क्या फल है ? मुझको भी बताओ। तब जिनमती बड़े प्रोम से भाई से कहने लगी, हे सहोदर ! इस पुष्प पूजा का माहात्म्य कहां तक कहूँ. जीव को चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव की पदवी तक मिलती है। इस पूजा के प्रभाव से मनुष्य सुख, भोग विलास, धन सम्पत्ति, लक्ष्मी वृद्धि, शरीर की ग़रोग्यता और कुटुम्ब वृद्धि होती है । परभव में देवताओं के सुख, इन्द्रादिपद प्राप्त होते हैं; अन् में अक्षय सुख सदन मुक्ति प्राप्त होता है। जो मनुष्य भक्ति सहित जिनपूजा करता है उसके इस लोक के उपसर्ग, दुष्ट, शत्रु, शान्त हो जाते हैं। हे भाई! यह फल निश्चय समझो। इस प्रकार जिनमती का उपदेश सुन कर बांधव बोला, यदि जिन पूजा का फल ऐसा है तो मैं विनय के साथ भक्ति से यावज्जीव त्रिकाल जिन पूजा करूंगा। ऐसा निश्चय जिनमती के सामने किया। तब बहिन For Private And Personal Use Only ॥ ३६ ॥
SR No.020072
Book TitleAshtaprakari Pooja Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaychandra Kevali
PublisherGajendrasinh Raghuvanshi
Publication Year1928
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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