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________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माता-पिता का प्रेम दोनों पर प्रतिदिन बढ़ता रहता था । अन्यदा पिता ने दक्षिण मथुरा में रहने वाले मकरध्वज सेठ के पुत्र विनयदत्त के साथ अपनी पुत्री का पाणिग्रहण कराया। वह जिनमती बहुत धन आभरण, वस्त्रादि, दास-दासी के साथ अपने सुसराल को गई, कुछ दिनों तक पति के साथ सुख भोगती थी । एक समय जिनमतीने अच्छे पुष्पों की माला मंगाई और भक्ति पूर्वक श्री जिनराजकी पूजा, नित्य करने लगी। इसी अव सर में इसकी लीलावती नामक सौत (सपत्नी) ने ईर्षा से मिथ्यात्व हृदय में धारण करती हुई अपनी दासी से क्रोध के साथ कहा है प्रिये ! इस पुष्प माला को तुम ले जाओ और बाड़ी में जाकर बाहर फेंक दो, मैं इस माला को नहीं देख सकती हूँ इससे मेरे नेत्रों में दाह उत्पन्न होता है । ऐसे सेठानी के वचन सुन दासी ने श्रीजिनराज के ऊपर चढ़ी हुई पुष्प माला को लेने के लिये ज्योंही हाथ डाला त्योंही उसने भयंकर सर्प देखा । भयभीत हुई वहां से दौड़ने लगी, इतने में वह सेठानी कोप से उठकर उस माला को बाहर फेंकने के लिये हाथ डालने लगी, त्योंही मालाधिष्ठायक देवता ने सर्प होकर उसके हाथ को लपेट लिया, और जोर से मरोड़ने लगा । सेठानी उसकी पीड़ा से अत्यन्त दुखी होकर रोने लगी और ऊंचे शब्द से विलाप करने लगी । इसकी आवाज सुनकर नगर के लोग इकट्ठे होगये, उन्होंने यह शिक्षा दी कि तुम जिनमती के पास जाओ वह तुम्हारी रक्षा करेगी । ऐसा सुनकर बहुत दुःखित हुई, रानी रोती हुई सब नगरवासी जनों के साथ वहां जिनमती के पास गई। For Private And Personal Use Only
SR No.020072
Book TitleAshtaprakari Pooja Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaychandra Kevali
PublisherGajendrasinh Raghuvanshi
Publication Year1928
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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