SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shin Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirtm.org Acharya Shil kailassaganser Cyanmandir प्रकार , पूजा ॥ ३३॥ لكل لا जिससे तुम्हारे बंधे हुए कर्म छूट गये । राजा ने भी प्रणाम करके केवली से पूछा, हे भगवन् ! मैंने कौन शुभ कर्मों से यह राज्य पाया है, और उत्तम स्त्री सुख प्रास हुआ है? तब गुरु महाराज कहने लगे हे नृपेन्द्र ! शुक भव में श्री जिनराज के अगाड़ी अक्षत पूजा की थी इससे तू देवलोक में गया, वहां देवागनाओं के साथ अनेक नाटकादि सुख भोगा, अन्त में च्युत होकर यहां पाया, तब राज्य सुख प्राप्त हुआ फिर गुरु ने पिछले भव की पात विस्तार से कही और यह भी कहा, हे राजन् ! तुमने पूर्व भव में श्री जिनराज की पूजा विधि पूर्वक की थी जिससे यहां राज्य का सुख और आगे शाश्वत मोक्ष सुख मिलेंगे। यह बात सुन कर राजा ने कहा हे मुनिराज ! मैं अपने पुत्र को राज्यभार देकर चारित्र ग्रहण करना चाहता हूँ। _ 'इस प्रकार गुरु की आज्ञा लेकर अपनी राजधानी में गया, वहां रतिसुन्दरी के पुत्र को राज्य का काम सौंप दिया और बड़े महोत्सव के साथ दीक्षा ग्रहण की। जयसुन्दरी रानी ने भी दीक्षा ली। इसका पुत्र कुमार ने । भी गुरू के पास प्रव्रज्या ग्रहण की । पिता के साथ विचरता है और साधु के आचार सीखता है। अन्त में राजा अपने स्त्री पुत्र सहित अनशन करके शुभ ध्यान से मर कर सातवें देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहां सुरराज ॥ ३३ ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020072
Book TitleAshtaprakari Pooja Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaychandra Kevali
PublisherGajendrasinh Raghuvanshi
Publication Year1928
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy