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________________ Shin Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Sh Kailassagarsur Gyanmandie श्री अष्ट । राजभवन के गवाक्ष में बैठ गई और नीचे अग्नि-कुण्ड में शरीर डालने को उचत हुई । इतने में वह अधिष्टापक प्रकार पण पक्षराज प्रत्यक्ष हो कर बोला-मैं तुम्हारे सत्य साहस से प्रसन्न हुआ है, यह कुण्ड शीतल जल से भरा है । मैं । ॥२८॥ तेरे पर अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ अतः तेरी इच्छा हो सो वस्तु मांग, मैं देने को तैयार हूँ। यच के यह वचन सुन पटरानी बोली-हे यक्षराज! यदि आप मेरा ऊपर प्रसन्न हुए हैं तो मेरे स्वामी यह राजा हेमप्रभ नामक है जिनका । प्राणिग्रहण मैंने माता पिता और पंचों की साक्षी से किया है इनका कल्याण हो और रोग उपद्रव शान्त हो और मेरी इच्छा कुछ नहीं है। ऐसे रानी के बचन सुन यक्षराज बोला-हे भद् यह बात सत्य हो परन्तु देव दर्शन D । वृथा नहीं होते, इसलिये तू फिर इष्ट वस्तु मांग । मैं तेरे पर अत्यन्त प्रसन्न हुमा है। यह सुन रानी बोली-हे देव! L आपकी पूर्ण कृपा है तो यह राजा चिरञ्जीव हो, इतनी ही याचना करती हैं। पीछे देवता ने राजा-रानी को दिव्य अलंकार, वस्त्र सहित एक सोने के कमल पर बना हुआ सिंहासन दिया, उस पर उन दोनों को बैठा कर बड़ी महिमा की । जाते समय ऐसी अशीस दी कि तेरा पति चिरकाल जीवित रहे । उसकी प्रशंसा कर उन दोनों पर । । पुष्पों की वर्षा की और बोला-हे रानी! तु धन्य है जिसने अपना जीवित दान देकर स्वपति को जीवित किया, ऐसा कह कर देवता चला गया। V॥ २८॥ अब उस रानी ने अपना जीवित दान मूल्य देकर राजा को वश किया, तब राजा प्रसन्न होकर बोला पकाकर्ता هلهلهل For Private And Personal Use Only
SR No.020072
Book TitleAshtaprakari Pooja Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaychandra Kevali
PublisherGajendrasinh Raghuvanshi
Publication Year1928
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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