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________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस भय से तीसरे भव में पोतनपुर नगर में तुम्हारा पुत्र हुआ था इत्यादि सब बात केवली महाराज ने राजा को सुनाई । फिर उन्हों ने कहा हे राजन् ! इसने तुम्हारे साथ युद्ध करते समय सुभटों से कहा था- "अरे सुभटों ! इस राजा को क्रोध का ताप है तुम चन्दन क्यों लगाते हो, अशुचि पदार्थ लगाओ" ऐसे वचन मुख से निकाले थे । उसका फल इस भव में तेरे साथ प्रत्यक्ष भोगा । केवली महाराज के ऐसे वचन सुनते ही राजा को जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसने जैसा केवली ने कहा था वैसा सब वृत्तान्त जाना और श्री जिनधर्म में रुचि की और दीक्षा ली । धूपसार को भी धर्म की विशुद्धि प्राप्ति हुई । उसने धन संपदा और परिवार का स्नेह छोड़ कर दीक्षा में आदर किया, जिन भाषित विधि से राजा के साथ दीक्षा ली और सब सिद्धान्त जाने । फिर धूपसार कुमार ने तप, संयम और नियम में अनुराग रखते हुए शुद्ध रीति से तथा मन, वचन और काय के योग द्वारा दीक्षा का पालन किया। अन्त में आयु के क्षय होने पर अनज्ञान विधि पूर्वक आराधन किया, शुभ ध्यान से मरकर पहले नय प्रवेयक लोक में उत्पन्न हुआ। वहां तेवीस सागरोपमअनशनबूत आयु पालन कर रमणीय देवभोग भागकर मनुष्य योनिमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार मनुष्य के तीन भव और देवताओं के तीन भवोंमें घूम कर दो गति से सातवें भव में पहुँचा, वहां से शाश्वत मुक्ति स्थान को प्राप्त हुआ । इति श्री पूजाष्टक विषये धूपाधमे विनयंधर कुमार कथानकं समाप्तम् । For Private And Personal Use Only
SR No.020072
Book TitleAshtaprakari Pooja Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaychandra Kevali
PublisherGajendrasinh Raghuvanshi
Publication Year1928
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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