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________________ Shin Mahavir Jain Aradhana Kendre www.kobatirtm.org Acharya Shil kailassaganser Cyanmandir كل الحل एकदा नगरी के प्रवेश मार्ग पर एक मुनिराज निश्चल ध्यान में बैठा है, तप करने का निश्चय कर अभिग्रह लेकर नियम से अटल और अचल होकर सूखे वृक्ष के जैसे कायोत्सर्ग ( काउसम्ग में लीन होकर 1 ध्यान में निश्चल होकर तप करता है। नगरी के लोग आते जाते उस साधु को अपशकुन जानकर घृणा करते . थे, कई लोक नगरी के प्रवेश और निर्गम रोकने के कारण निर्दयपन और ष से मस्तक पर मुष्टि प्रहार करते थे साधु निश्चल तप करता रहता था । जब राजपुरुषों को साधु की अवहेलना करते देखा तो पापी पुरुष पामर लोग साधु के मस्तक पर मुष्टि प्रहार करने लगे, मुनिराज के यह उपसर्ग हुआ, तो भी ध्यान से मेरु पर्वत D समान निश्चल रहे धैर्य धारण कर लिया। लोगों का उपद्रव देख नगर का पोलक क्षेत्राधिष्ठायक देव ने साधु की महिमा बढ़ाने के लिये क्रोध * धारण किया, और नगर के लोगों को महा अपराधी जाना, साधु के निर्दोषपने से प्रसन्न हुमा । बड़े उपसर्ग करते हुए लोगों को उसने विडम्बना की, साधु की मरणान्त अवस्था प्रास हो गई। इस अवसर में मुनि ने अत्यन्त तीपण उपसर्ग सहन किया और घनघाती कर्म का क्षय करके केवल ज्ञान प्राप्त किया उपशमचक्र पर चढ़ कर परमपद प्राप्त किया। मुनिराज महास्मा साधु अन्तकृत् केवली हो गये, अन्त में मुक्ति पद प्रास हो शाश्वत सुख के भागी हो गये। هل الصلاحلام For Private And Personal use only
SR No.020072
Book TitleAshtaprakari Pooja Kathanak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaychandra Kevali
PublisherGajendrasinh Raghuvanshi
Publication Year1928
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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