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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ус अमृतसागर तथा प्रतापसागर तरंग रिहोय १४ अथजीकैपतीसारहोय सौननीवस्तकरैनहीं न यौपन्न गरमवस्तभायो चीको भोजन तावडी षेद मैथून सनांन चिंता येअतीसार वालोकरैनहीं यौवैद्यविनोदमेलिष्यो १५ अथ अतीसारकौत्र्मसाध्यलक्षगलिष्यते सूरकामांस सिरकोमलहो यतिस दाह अरुचि सास हिचकी पसवाडामैसुल मूर्छा पर कौईवानमेंमनलागेनहीं येजीमेलक्षण अरगुदापकिजाय अग्निजीकीजानीरहै तिसजीनेंघणीलागे अरज्वरभीर है परमुत्रबंधहो य परसरीरकौबलजातोरहें येजींच्प्रतीसारमै लक्षणहीय सौपुरष मरिजाय अथप्रतीसारजी कोजानोरन्यो होयती कोलम्सलि ष्यते जीकैजंगलविनांमूनऊतरे मरगुदाको पवनप्राछी तरह चलै अरत्र्याडीभुषलागे अरकोठोहलको हुवोहोय येजीमेलक्ष एराहोय तींकोअतीसारकौरौगडुरिवोजाणिजे इतित्र्पतीसार रोगकी उत्पत्तिलक्षणजतनसंपूर्णम् १ ५ अथसं ग्रहणी रोगकी उत्पत्तिलक्षणजतनलिष्यने अथसंग्रहणी की उत्पत्तिलिष्यते प्रथममनुष्य की अतीसार होयकरि ती सारतोजातोरहै पाछेोमनुष्यकूपथ्यकरै तदित्र्यग्निमंदहोय सौत्राग्निमंदहुईथकी पूरषका उदरमैंरहतीजों ठीकलाजी को नामग्रहणाचे बालकात्र्यग्निकोस्थान अन्नादिकजोषाइजेजे नीने वाग्रहाकरैछे सोवामंदाग्निवैंकलानविगाडेछें सोना कला विगडीथकी काचाश्रन्ननेोग्रहकरे अप्राकाम्यन्नने गुदा द्वारकादेछे वास्तेवैद्य हें सोईरोगको नामसंग्रहणीक ईग्रह कलाकै अग्निही कोबनचे सोवाकलाश्रमिनेटकरे अथसं ग्रहणी रोगकालक्षणलिप्यते प्रथमसंग्रहणीच्चारि ४ प्रकारकी For Private and Personal Use Only
SR No.020035
Book TitleAmrutsagar Vaidyak Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSawai Pratapsinh Maharaj
PublisherGyansagar Press
Publication Year1860
Total Pages590
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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