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सूत्रम् 11८३॥
आचा०
ते भिक्षु कोइ वखत एक चर (एकलो फरनारो) होय, अने ते आगळ-पाछळ संखडिन भोजन खाइने तथा शीखंड के |
दूध विगेरे अति लोलुपीपणाथी रसनो स्वादीयो बनीने घणुं खाय, तो विशेष झाडा थाय, अथवा वमन थाय, अथवा अजीरणथी ॥८॥ कोढ विगेरे कोइ रोग थाय, अथवा तुर्त जीव लेनारो आतंक शूळ विगेरे रोग थाय, माटे केवळी सर्वज्ञप्रभु कहे छे के ते संखडिनुं
जमण कर्मोनु उपादान हे, ते आदान केवी रीते थाय छे, ते बतावे छे. आ संखडिना स्थानमा आ अपायो (पीडाओ) थाय छे, अथवा जीभनो स्वाद करी इंद्रियो उन्मत्त थतां दुर्गति गमन विगेरे परलोकना अपायो छे, [ खलु शब्द वाक्यनी शोभा माटे छे] ते भिक्षु गृहस्थ अथवा तेना घरनी स्वीओ साथे अथवा परिव्राजक (बाबा) साथे अथवा बावीओ साथे कोइ दिवस एक वाक्य पा(एक चित्त थवा) थी प्रेमी बनीने तेभोनी साथे ते साधु लोलुपपणे कोइ पण जातवें नसो चडावनारुं पीj पण पीए, अने नसो चडतां रहेवानें स्थान याचे, पण जो तेवो शीलरक्षणनो उपाश्रय न मळे तो ते संखडि नजीकनाज मकान (धर्मशाळा विगेरे) मां गृहस्थ अथवा बावी विगेरे ज्या उतर्या होय तेमनी साथे उतरीने एकमेकपणे वर्ते, त्यां नसो चडेलो होवाथी कांतो गृहस्थ पो| ताने भूली जाय अथवा साधु पोताने साधुपणाथी भूले, अने तेथी आq चिंतवे, के हुँ गृहस्थज छु ! अथवा (इंद्रियो पुष्ट थयेल
होवाथी) स्वीना शरीरमां मोहित थयेलो अथवा नपुंसक साथे कुचालथी साधुपणुं गुमावे, अथवा तेने उन्मच जोइ कोइ रखडती | स्त्री अथवा नपुंसक तेनी पासे आवीने बोले के हे आयुष्मन् ! हे श्रमण ! हुं तारीसाथे एकांतमां मळवा इच्छं छु, आराममा अAथवा उपाश्रयमा रात्रे अथवा संध्याकाळे ते साधुने इन्द्रियोथी परवश बनेलाने कहे के तमारे त्यां आववू, अने तमारे अमारी
| इच्छाथी विपरीत न करवं, पण मारी साथे तमारे हमेशां अमुक स्थळमा आवद्, आ प्रमाणे परवश बनावीने गामनी सीत्रमा अथवा |
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