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आचा०
॥८५५॥
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स्कंध २ जो (अध्ययन पांचमुं )
जयस्यनादिपर्यन्तमनेकगुणरत्नभृत । न्यत्कृताशेपतीर्थेशं तीर्थं तीर्थाधिपर्नुतम् ॥ १ ॥
अनादि, अनंत काळ रहेनाएं, अनेक गुण रत्नोथी भरेलुं बधा मतवाळाने सीधे रस्ते लावनार अने तीर्थकरोए नमस्कार करेलं एवं तीर्थ (जैन शासन ) जयवंतु वर्त्ते छे,
नमः श्रीवर्द्धमानाय, सदाचारविधायिने । प्रणताशेषगीर्वाणचूडारत्नार्चितांहये ॥ २ ॥
सदाचार बतावनारा अने नमेला बधा देवताओना मुकुटना रत्नोथी जेना पग पूजीत छे. एवा श्रीवर्द्धमानस्वामीने नमस्कार थाओ. आचारमेरोर्गदितस्य लेशतः । मवच्मि तच्छेषिकचूलिकागतम् ॥ आरिप्सितेऽर्थे गुणवान कृती सदा । जायेत निःशेषमशेषितक्रियः ॥ ३॥
आचारांग सूत्ररूप मेरुपर्वतनी चूलिका समान आ चूलिकामां जे थोडो विषय आवेल छे, तेने थोडामां कहुं हुं कारण के कारण के हंमेशा कृत्य करनारो गुणवान पुरुष आरंभेला इच्छित अर्थमां बाकी रहेली क्रिया करवायीज संपूर्णपणा (नी अर्थसिद्धि) ने पामे छे. नव ब्रह्मचर्य अध्ययनरूप आचार प्रथम श्रुतस्कंभ कह्यो, हवे अग्रश्रुतस्कंध आरंभे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे.
पूर्व आचारना परिमाणने बतावतां कहां के
नवबंभचेरमइओ अट्ठारसपयसहस्सिओ वेओ । हवइ य सपंचचूलो बहुबहुअयरो पयगेणं ॥ १ ॥
नव ब्रह्मचर्यवाळो, अढार हजार पदवाळी पंच चला सहित पदोना अग्रवडे घणो घणो आ वेद (जैनागाम) आचारांग थाय छे.
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सूत्रम्
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