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१८५२॥
आखें नगर ज्यारे बळ्यु, त्यारे अंदर रहेला आंधळो पांगळी बन्ने मळी जबाथी मुखेथी बहार नीकळ्या, तेज का छे.. आचा० संजोगसिद्धीऍ फलं वदन्तीति. कारण के एक पैडाथी रथ चालतो नथी, बन्नेनो संयोग थमा कार्यनी सिद्धि थाय छे. पण
सूत्रम् ॥८५२॥
स्वतंत्र प्रवृत्तिमां तो विवक्षित कार्यनी सिद्धि थती नथी, ए प्रसिद्धन छे. वळी क्रिया विनानुं ज्ञान हणायुं छे, आगममां पण सर्व 15 नयोना उपसंहारना द्वार वडे आज विषय कह्यो छे. जेमके
सम्वेसिपि णयाणं बहुविहवत्तवय णिसामेत्ता । तं सचणय विसुद्धं चरण गुणडिओ साहू ॥१॥ बधा नयोनु घणा प्रकारचें वक्तव्य सांभळीने बधा नयथी विशुद्ध मंतव्यने चरण गुणमां स्थित साधु होय ते माने, तेथी आ आचारांगसूत्र ज्ञान क्रियारूप छे, तेने जाणेला सम्यग् मार्गवाळा साधुओ जेमणे कुश्रुत नदी कषाय माछलानां कुळथी आकुल। बनेल तथा प्रियनो वियोग अभियनो संयोग विगेरे अनेक दुःखथी मळेल महा आवर्त्तवालु मिथ्यात पवननी प्रेरणानी उपस्थापित भय शोक हास्य रति अरति विगेरे तरंगवाळु विश्रसा वेलाथी चित थयेलुं सेंकडो व्याधि मगरना समूहना रहेवासबाळु महा मंभीर भय आपनार त्रास उत्पादक महा संसार अर्णव (समुद्र) ने साक्षात् देखेलो छ, तेवा साधुओ ते संसार समुद्रथी पार जवा इच्छता होय तेमने आ आचारांग मूत्रमा बतावेलुं ज्ञान तथा क्रिया अव्याहत (निर्विघ्न) यानपात्र (बहाण) छे, एटला माटे मुमुक्षुए आत्यंविक, एकांतिक, अनाचाध, शाश्वत, अनंत अजरामर, अक्षय, अव्यावाध तथा समस्त रागद्वेश विगेरे द्वंद्व रहित सम्यग दर्शन, ज्ञान, व्रत, चरणक्रियाकलापथी युक्त परमार्थ श्रेष्ट कार्य जे सर्वोत्तम मोक्ष स्थान छे, तेनी इच्छावाला बनीने ते आचारांग 2 सत्रनो आधार लेवो, तेज ब्रह्मचर्य नामना श्रुतस्कंधनी निवृत्ति कुलबाळा श्री शील आचार्ये "तत्त्वादीत्या" नामनी वाहरि साधुना
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