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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्ययन द्वितीय उद्देशक ] [ ६०३ सीधे तनकर बैठ जाते और कभी शीतकाल की कड़कड़ाती सर्दी में रात्रि में बाहर निकलकर मुहूर्त्तभर तक भ्रमण करके निद्रा को दूर करते थे । (और पुनः ध्यानस्थ हो जाते) (परीषह की उदीरणा कर प्रमाद को हटाते थे मगर प्रमाद के वश में नहीं होते थे ।) ॥६॥ पूर्वोक्त निर्जन स्थानों में रहने के कारण तरहतरह के भयंकर उपसर्ग आते थे । सुने घर आदि में सर्प, नकुल आदि विषैले जानवर, श्मशान आदि में गिद्ध वगैरह पक्षी आकर भगवान् को कष्ट पहुँचाते थे ||७|| जब भगवान् शून्य घरों में ध्यानमग्न होते तब वहां छिपने या गुप्त कार्य करने की इच्छा से दुराचारी-चोर लम्पट आदि आते और (भगवान् को अपने कार्य में बाधक समझकर उन्हें वहां से हटाने के लिए कष्ट देते अथवा इसने हमें देख लिया है, यह किसी को कह देगा ऐसा समझकर) भगवान् को नाना प्रकार के कष्ट देते । कभी ग्रामरक्षक सिपाही (भगवान् को चोर या ढोंगी समझ) अपने हथियारों के द्वारा त्रास देते थे। कभी भगवान् की मनोहर मुद्रा को देखकर मुग्धा स्त्रियां और पुरुष भी उन्हें उपसर्ग देते थे ॥८॥ इहलोइयाइं परलोइयाई भीमाइं अणेगरूवाई। अवि सुभिदुभिगंधाई सदाइं प्रणेगरूवाई ॥६॥ अहियासए सया समिए फासाइं विरूवरूवाई। अरई रइं अभिभूय रीयइ माहणे अबहुवाई ॥१०॥ संस्कृतच्छाया-ऐहलौकिकान् पारलौकिकान् भीमाननेकरूपान् । अपि सुरभिदुरभिगन्धान शब्दाननेकरूपान् ॥६॥ अध्यासयति सदा समितः स्पर्शान् विरूपरूपान् । अरति रतिमभिभूय रीयते माहनोऽबहुवादी ॥१०॥ शब्दार्थ-इहलोइयाई इस लोक सम्बन्धी--मनुष्यकृत या प्रतिकूल । परलोइयाई= पारलौकिक-अनुकूल अथवा देवादिकृत । भीमाई भयंकर । अणेगरूवाई-नाना प्रकार के । अवि सुन्भिदुभिगन्धाइं-कभी मनोज्ञ अमनोज्ञ गन्धों को । अणेगरूवाई सद्दाई-नाना प्रकार के मनोज्ञ-अमनोज्ञ शब्दों को ॥६॥ विरूवरूवाई-विविध प्रकार के। फासाई-स्पर्शों को। सया समिए सदा समितियुक्त होकर । अहियासए सहन करते थे । अरई-शोक को । रई-हर्ष को । अभिभूय दूर करके । माहणे वे महान् भगवान् । अबहुवादी-कभी २ बोलने वाले प्रायः मौनी हो । रीयइ-संयम में विचरते थे ॥१०॥ भावार्थ-श्रमण भगवान् ने इहलौकिक और पारलौकिक-मनुष्य, देव और पशुजन्य अनुकूल प्रतिकूल भयंकर उपसर्गों को सहन किया । उन्होंने अनेक प्रकार के सुगन्ध और दुर्गन्ध को, मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दों को, प्रशस्त और अप्रशस्त स्पर्शों को सदा समभावपूर्वक सहन किया । ऐसे अनुकूल-प्रति For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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