SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 573
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५२० ] [प्राचाराग-सूत्रम् पीड़ित नहीं करता है ? आउसंतो गाहावई हे आयुष्मन् ! । नो खलु मम गामधम्मा उध्वाहंति मुझे काम पीड़ा नहीं देता है लेकिन । सीयफासं-शीत स्पर्श को । अहियासित्तए सहन करने में । नो खलु अहं संचाएमि=मैं समर्थ नहीं हूँ । अगणिकायं-अग्निकाय को । उजालित्तए वा= जलाना । पजालित्तए वा-अथवा बार-बार जलाना । कायं शरीर को । आयावित्तए वा एक वार तपाना अथवा । पयावित्तए वा बार-बार तपाना । अन्नेसि वा अथवा दूसरे को । वयणाओ-वचन से ऐसा कहना । नो खलु मे कम्पइ-मुझे नहीं कल्पता है । सिया कदाचित् । एवं वयंतस्स-साधु के ऐसा कहने पर। स परो-वह गृहस्थ। अगणिकायं-अग्निकाय को। उजालित्ता पजालित्ता-उज्ज्वलित प्रज्वलित करके । कार्य-मुनि के शरीर को। आयविज एक बार तपावे अथवा । पयाविज बार-बार तपावे । तं च भिक्खु भितु इसे । पडिलेहाए देखकर । आगमित्ता जानकर । अणासेवणाए इसका सेवन न करने के लिए । आणविजा सूचित कर दे। त्ति बेमि= ऐसा मैं कहता हूं। भावार्थ-शीत स्पर्श से कांपते हुए मुनि के समीप आकर कोई गृहस्थ बोले कि हे आयुष्मन् श्रमण ! आपको इन्द्रियधर्म (काम) पीड़ित तो नहीं करता है न ? यह सुनकर साधु को कहना चाहिए कि मुझे ग्रामधर्म पीड़ित नहीं करते हैं परन्तु मैं ठंड को सहन करने में असमर्थ हूँ । अग्नि जलाना या बारबार जलाना या शरीर को तपानम अथवा बार-बार तपाना मुझे नहीं कल्पता है तथा वचन द्वारा अन्य को ऐसा करने का कहना भी मुझे नहीं कल्पता है। मुनि के ऐसा कहने पर कदाचित् कोई गृहस्थ अग्नि को उज्ज्वलित प्रज्वलित करके मुनि के शरीर को तपाने लगे तो मुनि को यह देखकर और जानकर गृहस्थ को इन्कार कर दे कि मुझे अग्नि का सेवन करना युक्त नहीं है। विवेचन-इसके पूर्ववर्ती सूत्रों में साधक को समता का और उसके उच्च जीवन की सहजता का वर्णन किया गया है। इस सूत्र में की समता की कसौटी का वर्णन है। साधना के मार्ग में अनुकूल और प्रतिकूल संयोगों की कसक के हृदयरूपी स्वर्ण को अधिक विशुद्ध बनने का प्रसंग देती है। साधक में समता का कितना विकास होना चाहिए इस बात को स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण दिया गया है। कल्पना करिए कि साधक शीतज्वर अथवा शीत के कारण कांप रहा हो ऐसे प्रसंग पर कोई गृहस्थ साधुता की कसौटी के लिए या विनोद करने के लिए साधक से कहें कि अहो आयुष्मन् श्रमण ! तुम्हारा शरीर कामपीड़ा से तो नहीं कांपता है न ? क्या आप जैसे त्यागी को भी कामवासना पीड़ा देती है ? (गृहस्य के मन में मुनि के कम्पन से यह शंका हो सकती है कि इस त्यागी का मन भी मेरे घर की स्त्रियों को देखकर विचलित तो नहीं हो गया है । इस शंका के कारण वह साधु को उक्त प्रश्न करता है।) पूर्ण ब्रह्मचारी त्यागी साधक उस गृहस्थ के ऐसे कातिल वचनों को सुनकर भी अल्पमात्र भी क्रोधित न हो और शान्तचित्त से वह उस गृहस्थ से ऐसा कहे कि "हे आयुष्मन् ! मुझे काम पीड़ा नहीं देता है लेकिन ठण्ड जोर की है और मेरा शरीर उसे नहीं सह सकने के कारण कांप रहा है"। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy