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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्ययन तृतीयोद्देशक ] [ ५२५ अवलम्बित है। पूर्वसंस्कार, उच्च प्रारब्ध अथवा महापुरुषों की कृपा द्वारा ऐसी अवस्था में त्यागमार्ग का आचरण करना सम्भवित होता है। सर्वसाधारण के लिए यह दुष्कर ही नहीं वरन् असम्भवसा है। सूत्रकार ने “संबुज्झमाणा" पद दिया है । सम्बुध्यमान तीन प्रकार के होते हैं-(१) स्वयं बुद्ध (२) प्रत्येक बुद्ध और ( ३ ) बुद्ध बोधित । जो बिना किसी दूसरे के उपदेश के स्वयं जातिस्मरणादि द्वारा बोध पाते हैं वे स्वयंबुद्ध कहलाते हैं। जो बाह्य साधन-शव, मेघ, जीर्ण, उद्यान आदि को देखकर बोध प्राप्त करते हैं वे प्रत्येक बुद्ध हैं । जो दूसरों के द्वारा दिए गए उपदेश को श्रवण कर प्रबुद्ध होते हैं वे बुद्धबोधित हैं। यहाँ बुद्धबोधित का अधिकार है। सूत्रकार कह रहे हैं कि तीर्थङ्करादि पण्डित पुरुषों के वचनों को सुनकर तथा उनके हिताहित के विवेक को समझ कर तदनुसार आचरण करने वाला बुद्धिमान है। महापुरुषों के वचन जीवन में अमृत का संचार करने वाले होते हैं। महापुरुषों के शब्दों में वह संजीवनी शक्ति होती है जो मुदों में भी प्राण का संचार कर देती है। इसलिए महापुरुषों के वचन-श्रवण का सूत्रकार उपदेश कर रहे हैं। साथ ही यह ध्यान देने योग्य तत्त्व है कि सूत्रकार ने "मोच्चा" और "निसामिया" दो पद क्यों दिये हैं ? इन दो पदों के प्रयोग का तात्पर्य यह है कि केवल श्रवण करने से ही कुछ सिद्ध नहीं हो जाता । एक कान से श्रवण कर दूसरे कान से निकाल देने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है। महापुरुष जो उपदेश करते हैं वह केवल सुनने के लिए ही नहीं है परन्तु आचरण करने के लिए है। महापुरुषों के वचनों को सुनकर उन पर मनन करना चाहिए और अपनी शक्ति के अनुसार उसका सेवन करना चाहिए। यद्यपि महापुरुषों का कथन सागर के समान गम्भीर होता है तदपि अपनी शक्ति का विचार करके उसमें से कुछ न कुछ अवश्य ग्रहण करना चाहिए। . सूत्रकार ने ज्ञानी पुरुषों के वचनों का पालन करने का फरमाया है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि उसको समझे बिना ही उसका अन्धानुकरण किया जाय । महापुरुषों के वचन को अपनी विवेकबुद्धि द्वारा सोचना चाहिए। अपनी बुद्धि का भी उसमें उपयोग करना चाहिए और पश्चात् उसका पालन करना हितकारी है । अपना कर्त्तव्य स्थिर करने के लिए शानदृष्टि, महापुरुषों के वचन और विवेकबुद्धि का उपयोग, इन तीनों का समन्वय करना बड़ा हितावह होता है । इन तीन कसोटियों पर चढ़ा हुआ आचरण अवश्यमेव जीवन को विकास की ओर अग्रसर करेगा। महापुरुषों के वचनों को सुनकर तदनुसार आचरण करके कतिपय साधक समतायोग की साधना करते हैं। महापुरुषों ने "समता" में ही धर्म कहा है। दुनिया में जितने महापुरुष हुए, जितने हैं और भविष्य में जितने भी होवेंगे सभी का यही मत है कि समभाव द्वारा ही धर्म की सच्ची आराधना हो सकती है । गीता में कही हुई स्थित प्रज्ञता इसी समता का पर्याय वाची शब्द है। सुख-दुख, हानि-लाभ, जयपराजय, मित्र-अमित्र आदि में अपनी वृत्तियों को समतोल रखना ही स्थित प्रज्ञता है और यही समता का अर्थ है । इस समतायोग की सिद्धि के बिना शाश्वत सुख प्राप्त नहीं हो सकता क्योंकि यह समता जब तक प्राप्त न हो वहाँ तक अपूर्णता है। अपूर्णता में शाश्वत सुख कहाँ ? सूत्रकार ने इस उदार सूत्रद्वारा विश्व की एक जटिल समस्या का बड़ा ही सरल समाधान कर दिया है। दुनियाँ के श्राङ्गन में विविध मत, पन्थ और दर्शनों की भूलभुलैया बिछी हुई है । इसमें से अपना मार्ग ढूँढ लेना समझदार साधक के लिए भी बड़ा विकट काम होता है। इस समस्या को सूत्रकार ने बड़ी ही सुगम बना दी है । वे विश्व जितने उदार और व्यापक बनकर फर्माते हैं कि किसी भी पन्थ में या For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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