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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्ययन द्वितीयोद्देशक ] भावार्थ-भिक्षु साधक श्मशान में, शून्यगृह में, पर्वत की गुफा में, वृक्ष के मूल में, कुम्हार के खाली घर में फिरता हो, खड़ा हो, बैठा हो, सोया हो अथवा अन्यत्र कहीं विचरता हो, ऐसे प्रसंग पर कोई पूर्व परिचित अथवा अन्य कोई गृहस्थ उसके पास आकर इस प्रकार आमंत्रण करे कि हे आयुष्मन् श्रमण ! मैं आपके लिए खान, पान, खादिम, स्वादिम, वस्त्र, पात्र कम्बल, पादपुञ्छन वगैरह पदार्थ आपके लिए नाना प्राण, भूत, जीव और सत्त्वों का समारम्भ करके, खरीद कर, उधार लेकर, किसी से छीनकर, अथवा दूसरे के होने पर भी उसकी आज्ञा के बिना लाकर और मेरे घर से लाकर देता हूँ, आपके लिए सुन्दर मकान बनवाता हूँ या जीणोद्धार करवाता हूँ आप कृपा कर यहां रहो और खाओ, पीओ। हे आयुष्मन् साधको ! वह साधु ऐसे प्रसंग पर अपने परिचित मित्र अथवा मनस्वी गृहस्थ को इस प्रकार कहे कि "हे आयुष्मन् गृहस्थ ! मैं आपके वचन को स्वीकार नहीं करता हूँ और न उसका पालन करता हूँ । इसलिए तुम क्यों मेरे लिए प्रारम्भादि क्रिया करके खान, पान, वस्त्रादि की खटपट करते हो और क्यों मकान बनवाते हो ? हे आयुष्मन् गृहस्थ ! मैं ऐसे कार्यों से दूर रहने के लिए ही तो त्यागी बना हूँ। विवेचन-त्यागी साधक का जीवन श्रादर्श-जीवन होता है। उसके जीवन की प्रत्येक क्रिया ऐसी होती है जो विश्व को नवीन आदर्श समर्पित करती है। साधारण दुनिया की दृष्टि में जो वस्तु महत्त्व नहीं रखती वह वस्तु भी त्यागी की दृष्टि में एक महत्वपूर्ण चीज होती है । त्यागी की प्रत्येक क्रिया विश्व से सम्बन्धित होती है अतएव उसे अपनी क्रियाओं के प्रति जागृत रहना पड़ता है। अथवा यों कहना चाहिए कि त्यागी स्वभावतः जागृतिमय जीवन ही जीता है । जीवन में जागृति की किरण चमकाने में नियमों का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है । जिस व्यक्ति का जीवन जितना ही अधिक नियमबद्ध होता है वह उतना व्यवस्थित और जागरूक रहता है। हाँ, एक बात साथ ही अवश्य ध्यान देने योग्य है कि नियमों के पीछे रहे हुए श्राशय को साथ लेकर नियम-पालन होना चाहिए। ऐसा भी देखा जाता है कि नियमों के पीछे रहे हुए आशयों को भूल जाने पर नियम जीवन में नीरसता लाने वाले सिद्ध होते हैं, नियमों के बन्धन में जकड़े जाने पर जीवन शुष्क हो जाता है और नियम केवल भाररूप हो जाते हैं। लेकिन यदि नियमों के श्राशय को समझकर नियम पालन किया जाता है तो जीवन में नवीन जागृति और ताजगी रहती है । इससे जीवन व्यवस्थित बन जाता है। इसी आशय को लेकर त्यागी साधक की प्रत्येक क्रिया नियमबद्ध होती है। सूत्रकार ने साधक के जीवन की प्रत्येक क्रिया के नियमोंपनियमों का विधान किया है ।साधक का खनपान, वस्त्र, शय्या, आसन, स्थान-ग्रहण आदि नियमपूर्वक होता है। शास्त्रीय भाषा में इसे कल्प कहते हैं। साधक का जीवन किसी के लिए पीड़ाकारी न हो इस बात को मुख्य रूप से लक्ष्य में रखकर उसके नियमोपनियम रचे गये हैं। आहारादि के सम्बन्ध में साधक के जो नियम हैं और जो दोष हैं उनका वर्णन पहले किया जा चुका है । यहाँ सूत्रकार यह बताना चाहते हैं कि साधक खान-पान आदि क्रियाओं में आने वाले प्रलोभनों से प्रभावित न हो जाय और अपने नियमों को न छोड़ दे। प्रायः ऐसा होता है कि त्यागी के वैराग्य और व्यवहार के कारण जनता की भक्ति और श्रद्धा उस त्यागी की ओर हो जाती है। उस भक्ति के कारण यदि कोई गृहस्थ त्यागी साधक को अशन, पान, For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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