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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org च ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम अणासायमाणे वज्झमाणाएं पाषाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं जहा से दीवे संदी एवं से भवइ सरणं महामुखी । Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir संस्कृतच्छाया— अणुविचिन्त्य मितुर्धर्ममाचक्षमाणो जात्मानमाशातयेत् न परमाशातयेत् नो अन्यान् प्राणिनः भूतान् जीवान् सत्वानाशातयेत् सोऽनाशातकः अनाशातयन् वध्यमानानां प्राणिनां भूतानां जीवानां सत्वानां यथा स द्वीपोऽसन्दीनः एवं स भवति शरणां महामुनिः । " शब्दार्थ — भिक्खू - सुनि | अणुवीद = विचार कर | धम्ममाइक्खमाणे धर्म का उपदेश देते हुए । नो अत्ताणं श्रसाइजा = अपनी आत्मा की आशातना न करे । परं श्रसाइजा= दूसरों की भी आशातना न करे । अन्नाई पाणाई जात्र सत्ताई नो आसाइज्जा अन्य प्राणी, भूत, जीव और सत्वों की शातना न करे । से अणासायए = वह स्वयं श्राशातना न करता हुआ । अणासायमाणे = दूसरों से आशातना नहीं करता हुआ । वज्झमाणाणं पाणाणं जाव सत्ताणं = मारे जाने वाले प्राणियों यावत् सत्वों के लिए। जहा से दीवे असंदी = जैसे जल से लिप्त न होने वाला दीन द्वीप है । एवं से भवइ सरणं महामुखी - इस तरह वह महा मुनि शरणभूत होता है । भावार्थ – पूर्वापर विचारपूर्वक धर्मोपदेश देता हुआ मुनि यह ध्यान रक्खे कि वह उपदेश देते हुए अपनी आत्मा की शातना न करे, दूसरे की आत्मा की आतना न करे और अन्य किसी प्राणी, भूत, जीव और सत्य की आशातना न करे । इस तरह स्वयं आशा तना न करने वाला और दूसरों से शाना न करने वाला वह महा मुनि वध्यमान प्राणी, भूत, जीव और सत्वों के लिए असंदीन द्वीप की तरह शरणभूत होता है । 1 विवेचन - पूर्व सूत्र में पर- कल्याण के लिए मुनि को उपदेश-प्रदान करने के लिए कहा गया है अब इस सूत्र में सूत्रकार त्यागी मुनि के लिए उपदेश-प्रदान की मर्यादा का विधान करते हैं। कहीं उपदेश देने के पीछे लगकर वह त्यागी साधक अपने संयम की साधना को प्रति सावधान न हो जाय इसलिए सूत्रकार ने यहाँ उपदेश देने की मर्यादा का कथन किया है । त्यागी मुनि को यह कदापि नहीं भूल जाना चाहिए कि उसका प्रधान कर्त्तव्य संयम की साधना है । उपदेश-प्रदान तो उसका सहायक अंग है । इसलिए उपदेश देते हुए अपनी आत्मा का अहित न हो इस पर पूरा लक्ष्य रखना चाहिए। इस रीति से और इस मर्यादा में रहकर उपदेश दिया जाना चाहिए कि जिसके द्वारा उसकी मूल संयम साधना में किसी प्रकार की बाधा न पहुँचे। अपनी मूल वस्तु को ठेस पहुँचा कर दूसरे को उपदेश देना ठीक नहीं है । इसलिए इस तरह और इस रीति का उपदेश प्रदान करे जिससे उसकी साधना में किसी तरह का विघ्न न हो । अपने दैनिक संयम कृत्यों में और कालानुकाल की जाने वाली क्रियाओं में भंग या विक्षेप डालकर उपदेश नहीं देना चाहिए। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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