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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४५८ ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् चाहिए। जहाँ राग है वहाँ द्वेष है और इस तरह पाप - परम्परा वहाँ विद्यमान है। अतएव साधक को विरक्तभाव रखने चाहिए । विरक्त आत्मा सब तरह की पापक्रिया से निवृत्त होता है। वह पर पीड़ाकारी कोई क्रिया नहीं करता है। वह पदार्थों का उपयोग करता है—उपभोग नहीं करता । पदार्थों के उपभोग में राग - आसक्ति होती है। साधक को राग का नाश करना है अतएव वह प्रत्येक पदार्थ का उपयोगमात्र करता है। साधक को निरन्तर इस भावना का चिन्तन करते रहना चाहिए । यह भावना संयम में दृढ़ता उत्पन्न करती है । ( ४ ) द्रव्यभाव अचेलकता अथवा मुण्डन - साधक द्रव्य से अचेल और द्रव्य से मुण्डित होता ही है लेकिन भाव से अचेल और भाव से मुण्डित होना उतना ही आवश्यक है । साधक अत्यन्त अल्प aa धारण करता है तदपि वस्त्रों में तो क्या शरीर तक में उसका मोह नहीं होना चाहिए। वस्त्र होते हुए भी निर्मोह अवस्था से साधक अचेल ही होता है। यह तो हुई द्रव्य अचेलकता की व्याख्या । अपनी वृत्तियों को नहीं छिपाते हुए उन्हें असली रूप में प्रकट करना वृत्ति की अचेलकता है । यही भाव अचेल - कता है। इसका तात्पर्य यह है कि बाह्य आडम्बर और बाह्य लोक की प्रशंसा प्राप्त करने के लिए अपनी वृत्तियों को बनावटी रूप से प्रदर्शित करना साधक का कर्त्तव्य नहीं है । यह लोकैषणा दंभ और पाखण्ड का पोषण करती हुई आत्मा को मलिन बनाती है। साधक का तो यह फर्ज है कि अपनी वृत्ति जिस स्वरूप में है उसी रूप में शुद्ध हृदय से जगत् के सामने रक्खे । उसमें आडम्बर को स्थान न होना चाहिए । इस तरह साधक द्रव्य एवं भाव से अचेलक रहे। साथ ही साधक सिर के बालों को निकाल कर मुण्डित बने। इससे शरीर की सुन्दरता के प्रति निरपेक्षता सूचित की है। साधक अपने शरीर पर मोह नहीं रखता अतएव शरीर की सुन्दरता से उसे कोई प्रयोजन नहीं है अतएव वह द्रव्य से मुण्डन करता है। साथ ही भावन विशेष आवश्यक है। वृत्तियों पर रहे हुए मलिन संस्कारों को निकाल देना भावमुण्डन है । जब तक साधक को अपने दोषों का भान न हो वहाँ तक वह दोषों को दूर नहीं कर सकता है। भावमुण्डन की क्रिया अति आवश्यक है । इसके अभाव में बहुत से साधक अपनी वृत्तियों को दंभ और श्राडम्बर से सजाकर जगत् के सामने रखते हैं। इससे लोग आकर्षित होते हैं। साधक को मान, प्रतिष्ठा और पूजा मिलती है परन्तु इससे साधक की आत्मा का हनन होता है। अतएव साधक को चाहिए कि वह दंभ के वरण को चीर कर फेंक दे। चार रचनात्मक उपाय साधक को साधना में स्थिर करने वाले और दृढ़ता देने वाले हैं । सूत्रकार ने ऊनोदरी - परिमिताहार करने की सूचना की है। इसका कारण यह है कि आहार और संयम का बहुत कुछ सम्बन्ध है। आहार भी संयम के ऊपर असर डालता है । त्यागियों का आहार और भोगियों का आहार भिन्न भिन्न होना चाहिए। साधक को परिमित आहार करना चाहिए और वह भी श्राहार सात्विक होना चाहिए। जो आहार वृत्तियों को उत्तेजित करने वाला हो ऐसा - राजसी और तामसी - हार से साधक को बचना चाहिए। इस तरह इस सूत्र में साधना में दृढ़ रहने के उपायों का दिग्दर्शन कराया गया है। उन पर साधक को अमल करना चाहिए । सेाकुट्टे वा हए वा लुंचिए वा पलियं पकत्थ अदुवा पकत्थ अतहेहिं सद्दफासेहिं इय संखाए एगयरे अन्नयरे प्रभिन्नाय तितिक्खमाणे परिव्वाए For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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