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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir १४ ] [अाचाराङ्ग-सूत्रम् शंका-जैसे किण्व, उदक श्रादि मद्य के अंगों में अलग २ मादक-शक्ति नहीं होते हुए भी जब उनका संयोग होता है तो उनमें मादक-शक्ति प्रकट हो जाती है उसी तरह भूतों में अलग चैतन्य गुण न होने पर भी जब वे कायाकार होकर एकत्र मिलते हैं तब उनमें चैतन्य प्रकट होता है। समाधान-मद्य के प्रत्येक अंग में मादक शक्ति नहीं है यह कथन असत्य है। प्रत्येक अंग में यदि आंशिक माइक शक्ति न हो तो वह समुदाय में भी नहीं सकती है । किण्व में भूख दूर करने और सिर में चकर पैदा करने की शक्ति होती है इसी तरह जल में भी तृषा दूर करने की शक्ति है। ये सब अांशिक मादक शक्तियाँ मिलती हैं तभी लम्मिलित मादक शक्ति बन सकती हैं, अन्यथा नहीं। पृथक् पृथक भूत में चैतन्य माने बिना समुदित भूतों में चैतन्य या नहीं सकता। यदि भूतों से चैतन्य की उत्पत्ति मानी जाय तो किसी का मरण नहीं होना चाहिए। क्योंकि मृत-शरीर में भी पञ्च भूतों की सत्ता रहती है। उसमें भी चैतन्य की अभिव्यक्ति होनी चाहिए । शंका-मृतशरीर में वायु और तेज नहीं होते अतः चैतन्य का अभाव होता है और यही मरण है। समाधान यह कहना ठीक नहीं है । मृत-शरीर में सूजन देखी जाती है जो वायु का सद्भाव सिद्ध करती है । तथा मृत-शरीर में मवाद का उत्पन्न होना देखा जाता है, यह अग्नि का कार्य है अतः तेज भी वहाँ मौजूद है । पञ्चभूतों के रहते हुए भी मृत-शरीर में चतन्य नहीं पाया जाता यही सिद्ध करता है कि चैतन्य भूतों का गुण नहीं । यदि चैतन्य को भूतों का गुण माना जायगा तो मरण के अभाव का प्रसंग उपस्थित होगा। यदि चैतन्य भृतों का ही धर्म होता तो जहाँ पांचों भूतों की सत्ता हों वहाँ अवश्य चैतन्य देखा जाना चाहिए । लेकिन लेप्यमय प्रतिमा में सब भूतों के होते हुए भी जड़ता ही पाई जाती है । इससे यह भलीभांति सिद्ध हो जाता है कि चैतन्य भूतों का धर्म नहीं अपितु आत्मा का धर्म है। आत्मा के चैतन्य गुण का प्रत्यक्ष होने से प्रात्मा का प्रत्यक्ष स्वयं सिद्ध है क्योंकि गुण और मुणी अभिन्न हैं । अतः आत्मा का प्रत्यक्ष-प्रमाण से ग्रहण होना सिद्ध होता है। स्वसंवेदन प्रमाण से भी प्रात्मा का प्रत्यक्ष होता है। प्राणिमात्र को "मैं हूँ" ऐसा स्वसंवेदन होता है । किसी भी व्यक्ति को अपने अस्तित्व में शंका नहीं होती । “मैं सुखी हूँ" अथवा "मैं दुःखी हूँ" इत्यादि में जो "मैं" है वही आत्मा की प्रत्यक्षता का प्रमाण है । यह 'अहंप्रत्यय' ही आत्मा की प्रत्यक्षता का सूचन करता है। शंका-"मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ" इस प्रत्यय में "मैं" शब्द आत्मा का निर्देश नहीं करता अपितु शरीर का निर्देश करता है। उक्त प्रत्ययों में सुख दुख का अनुभव करने वाला शरीर ही है। समाधान—यह कल्पना मिथ्या है । यदि उक्त प्रत्ययों (ज्ञानों) में 'अहं' से शरीर का निर्देश होता तो "मेरा शरीर" इस प्रकार की प्रतीति नहीं होनी चाहिए। किसी भी व्यक्ति को "मैं शरीर हूँ" ऐसी प्रतीति नहीं होती। सबको “मेरा शरीर" यही प्रतीति होती है। इससे यह मालूम होता है कि शरीर का अधिष्ठाता कोई है । जैसे "मेरा धन' कहने से धन और धनवाला अलग २ मालूम For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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