SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 445
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ४१४ ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् चोथे भंग में ऐसे साधक हैं जिन्हें पहिले भी शंका बनी रहती है और बाद में भी बनी रहती है। उनकी शंका का समाधान नहीं होता । वे कदाग्रही ही बने रहते हैं । जैसे आगम में कहा गया है कि परमागु एक समय में चौदह राजू प्रमाण लोक के एक छोर से दूसरे छोर पर जा सकता है। यह कथन सूक्ष्म और arts के अगोचर है । मानवीय कर्मावृत्त बुद्धि इस बात को नहीं समझ सकती । अतएव वह साधक यह कहता है कि यह बात बुद्धि को नहीं जँचती अतएव ऐसा नहीं हो सकता । इसलिये वह शुरु से अन्त तक इसी बात पर अड़ा रहता है। वह यह नहीं सोचता कि मानव कर्मों से लिप्त है। उसकी बुद्धि परिमित है । अनन्तज्ञानियों ने अपने ज्ञान और अनुभव के बाद यह प्ररूपित किया है अतएव यह झूठ नहीं हो सकता । मेरी बुद्धि की अल्पता से मुझे यह समझ में नहीं आता । ऐसा विचार नहीं करता है इसलिए वह शुरू से आखिर तक शंकाशील ही बना रहता है । इस प्रकार चार भंग बताकर अब आगे सूत्रकार उपसंहार करते हुए परमार्थ का प्रकाशन करते हैं । सूत्रकार यह फरमाते हैं कि जिसकी श्रद्धा शुद्ध होती है वह वस्तु को चाहे सम्यग् या असम्यग् रूप से ग्रहण करें लेकिन वह सम्यग् विचारणा के द्वारा उसे सम्यग् रूप में ही परिणामाता है । जिसे यह दृढ़ श्रद्धा होती है कि जिनेश्वर देव के वचन असत्य नहीं हो सकते वह साधक भले ही तत्त्व को अच्छी तरह समझ सके या न भी समझ सके तो भी वह उसको सत्य रूप में ही परिणामाता है कदाचित् उसने वस्तु को जिस रूप में मानी है उस रूप में वह न भी हो तो भी उसकी विचारणा सत्य है अतएव वह सम्यग् ही है । जिस प्रकार उपयोगपूर्वक ईयपथ शोधते हुए साधु के द्वारा कोई जीव वध को प्राप्त हो जाय तो भी वह बन्ध का कारण नहीं है । इसी तरह जिसकी श्रद्धा शुद्ध है वह व्यक्ति कदाचित् असत्य स्वरूप य ग्रहण करता है तो वह अपनी सम्यग्भावना के द्वारा उसे सम्यग् बना लेता है । जिसका आशय शुद्ध होता है वह सत्य को भी सत्य रूप में बदल लेता है । यह बात गहन और अनुभवगम्य है । साधक को अपने आशय की शुद्धता पर ध्यान देना चाहिए। साधक दशा में ज्ञान की अपूर्णता रहती है श्रतएव यह सम्भव है कि कई बार जो असत्य जँचता हो वह सत्य हो सकता है और जो सत्य जँचता है वह असत्य हो सकता है । सत्यासत्य का पूर्ण निर्णय तो सम्पूर्ण ज्ञानी ही कर सकते हैं। अतएव साधक को की शुद्धि पर विशेष लक्ष्य देना चाहिए । इसका अर्थ यह नहीं है कि वह आँख मींचकर हरेक बात को मान ले, सत्य-असत्य का अपनी बुद्धि से माप न निकाले । अवश्य साधक सत्य-असत्य की परीक्षा करे, अपनी विवेकबुद्धि से काम ले लेकिन वह यह न करे कि जो मैंने समझा है वही सच्चा है। वह अपने को प्रामाणिक ही मानकर दूसरे को एकदम मिध्या न कह दे । वह अपने अनुभव पर अन्तिम सत्य की छान मार दे । तात्पर्य यह है कि साधक जहाँ तक अपनी बुद्धि की दौड़ हैं वहाँ तक उससे काम ले और जहाँ बुद्धि काम न दें वहाँ उसे 'जिन प्ररूपित तत्त्व मिथ्या नहीं है' इस श्रद्धा से काम ले। इस तरह बुद्धि और श्रद्धा के सम्मिश्रण से साधक आगे बढ़ता चला जायगा ? के भंग में सूत्रकार यह बताते हैं कि जिसकी श्रद्धा खराब है वह चाहे सत्य को सत्यरूप में भी कदाचित् ग्रहण करे तो भी असद् विचारणा के कारण वह असत् रूप ही है। मिध्यादृष्टि का ज्ञान भी अज्ञान ही है । तत्त्वार्थ सूत्र में भी यह कहा गया है: सदसतोरविशेषाद् यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवत् । अर्थात् - जिस तरह पागल व्यक्ति कभी सत् को सत् भी कह देता है और असत् को असत् भी कह देता है, वह माता को माता कहता है और स्त्री को स्त्री कहता है। लेकिन उसका यह कथन विवेकपूर्वक For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy