SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 432
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पञ्चम अध्ययन चतुर्थोद्देशक ] [ ४०१ विषयों का ध्यान साधक के लिए जितना नुक्सान करने वाला है उतना वर्षाकाल का विहार नहीं । वर्षाकाल के बिहार में जो दोष हैं उनसे अधिक दोष विषयों के ध्यान में हैं इस आशय से चातुर्मास में भी बिहार कहा गया है। 1 इतने पर भी यदि वासना का क्षय न हो तो सूत्रकार यह फरमाते हैं कि आहार का सर्वथा त्याग कर देना चाहिए | श्राहार-त्याग कर जीवन डोरी को कम करना अच्छा है लेकिन अब्रह्म का सेवन करना योग्य नहीं है । ब्रह्म सेवन से आत्मघात होती हैं । शरीरघात से आत्मघात भयंकर है । यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि अन्य महाव्रतों में अशक्य परिहार की अवस्था में मर्यादित अपवाद को स्थान दिया गया है लेकिन ब्रह्मचर्य व्रत में ऐसा नहीं किया गया है। इसके लिए किसी भी अवस्था में किसी प्रकार का अपवाद नहीं है । अतएव मन, वाणी और काया से ब्रह्मचर्य की सर्वाङ्ग साधना करनी चाहिए । आगे भी सूत्रकार इसी सम्बन्ध में कहते हैं: पुव्वं दंडा पच्छा फासा, पुव्वं फासा पच्छा दंडा, इच्चेए कलहा संगकरा भवंति, पडिलेहाए श्रागमित्ता प्राणविज्जा प्रणासेवणाए त्ति बेमि । से नो काहिए, नो पासलिए, नो मामए, णो कयकिरिए, वह गुत्ते अज्झष्प संवुडे परिवज्जइ सया पावं एवं मोणं समनुवासिज्जासि त्ति बेमि । संस्कृतच्छाया - पूर्वे दण्डाः पश्चात्स्पर्शाः, पूर्व स्पर्शाः, पश्चात् दण्डाः, इत्येते कलहासङ्गकरा भवंति, प्रत्युपेक्षया, ज्ञात्वाऽऽज्ञापयेदात्मानमनासेवनयेति ब्रवीमि । स न कथं कुर्यात्, न पश्येत् न ममत्वं कुर्यात्, न कृतकियों भूयात्, वचनगुप्तः अध्यात्मसंवृतः, परिवर्जयेत् सदा पाप एतन्मौनं समनुवासयेरिति ब्रवीमि । शब्दार्थ — पृवं = विषय सेवन के पहिले । दंडा-बहुत से पाप करने पड़ते हैं और संकट भोगने पड़ते हैं । पच्छा फासा बाद में भोगे भोग जाते हैं । पुव्वं श्रथवा पहिले विषय सेवन करे तो । पच्छा दंडा = पश्चात् दंड भोगने पड़ते हैं । इच्चेए ये स्त्रियाँ । कलहासंगकरा = कलह - रागद्वेष को उत्पन्न करने वाली हैं । पडिलेहाए = यह देखकर | श्रागमित्ता = यह जानकर । • श्रविजा = अपने आपको आज्ञा करे कि । अणासेवणाए - स्त्रीसंग का सेवन न करे । त्ति बेमि= ऐसा मैं कहता हूँ । से वह स्त्रीसंग त्यागी । नो काहिए - स्त्रियों की कथा न करे । नो पासणिए = उनके अवयवों को न देखे । नो मामए उनमें ममत्व न करे । नो कयकिरिए = स्त्रियों की सेवा न करे । वइगुत्ते = स्त्रियों से बातचीत करने में अति मर्यादित रहना चाहिए । अज्झष्पसंवुडे=अपने मन पर पूरा नियंत्रण करके । सया पाव = सदा पाप का । परिवजह = त्याग करे । एवं मोगं इस प्रकार मुनिभाव की । समवासिन्जासि = बराबर साधना करे । त्ति बेमि= - ऐसा मैं कहता हूँ । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy