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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चतुर्थ अध्ययन चतुर्थोद्देशक ] [३३५जे खलु भो ! वीरा समिया सहिया सया जया संघडदसिणो पात्रोवरया अहातहं लोयं उवेहमाणा पाईणं पडिणं दाहिणं उईणं, इय सचंसि परिचिट्ठिसु, साहिस्सामो नाणं, वीराणं, समियाणं सहियाणं सया जयाणं संघडदंसीणं श्राग्रोवरयाणं अहातहं लोयं समुवेहमाणाणं किमत्थि उवाही ? पासगस्स न विजइ नत्थि त्ति बेमि । संस्कृतच्छाय-ये खलु भो वीरा ! समिताः सहिताः सदा यताः निरन्तरदर्शिनः आत्मोपरता: यथातथावास्थितं. लोकं उपेक्षमाणाः प्राच्या, प्रतीच्या, दक्षिणायां, उत्तरस्याम् इह सत्ये परितस्थुः कथयिष्यामि ज्ञानं वीराणां, समिताना, सहिताना, सदा यतानाम्, निरन्तरदर्शिनामात्मोपरताना यथातथालोकमुपेक्षमाणानां किमस्त्युपाधिः ? पश्यकस्य न विद्यते, नास्तीति बवीमि । शब्दार्थ-भो हे साधको ! खलु=निश्चय से । जे=जो पुरुष । वीरा पराक्रमी । समिया सम्यग्प्रवृत्ति से चलने वाले । सहिया ज्ञानादि सद्गुण सहित । सया जया सर्वदा सत्संयम में उद्यमवंत । संघडदंसिणो कल्याण की ओर दृढ़ लक्ष्य धारण करने वाले । आयोवरया-पापकर्म से निवृत्त । अहा तहं लोयं लोक को यथार्थ रूप से । उवेहमाणा=देखने वाले थे वे । पाईणं-पूर्वदिशा। पडिणं पश्चिमदिशा। दाहिणं-दक्षिणदिशा । उईणं उत्तर दिशा में रहे हुए भी । सच्चंसि सत्य में। इय इस प्रकार । परिचिट्टिसुदृढ़ता से संलग्न रहे । वीराणं= वीरों के । समियाण समितों के । सहियाणं-ज्ञानादि सहितों के । सया जयाणं सदा यत्नशील के । संघडदंसीणं निरन्तर देखने वालों के । आओवरयाणं-पापकर्म से निवृत्त हुओं के । अहा तह-यथावस्थित । लोयं लोक को। उक्हमाणाणं-देखने वालों के । नाणं-ज्ञान को । साहिस्सामो कहता हूँ। किं-क्या ऐसे पुरुषों के । उवाही उपाधि । अत्थि है ? पासगस्स-तत्त्वदर्शी के । न विजह नहीं है । नत्थि-नहीं है । त्ति बेमि ऐसा मैं कहता हूँ। भावार्थ-जो साधक सचमुच वीर, सत्प्रवृत्ति में चलने वाले, ज्ञानादि गुणों में रमण करने वाले, सदा उद्यमशील, कल्याण की ओर लक्ष्य देने वाले, पाप से निवृत्त बने हुए और लोक को यथार्थ रूप से जानने वाले थे वे पूर्व, पश्चिम, दक्षिण और उत्तर यो सभी दिशाओं में रहकर भी सत्य में संलग्न रहे । उपर्युक्त गुणों से युक्त ( वीर, समित, सहित, सदा यत्नशील, निरन्तरदर्शी, आत्मोपरत, यथार्थ रूप से लोक को जानने वाले ) सत्पुरुषों का अभिप्राय मैं तुमसे कहता हूँ कि तस्वदर्शी पुरुषों के उपाधि नहीं रहती है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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