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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ३१८ ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् है वह नियमतः द्वेषयुक्त भी होता है अतएव राग-ग्रहण से राग और द्वेष दोनों ही समझने चाहिए। राग और द्वेष ही कर्म बन्धन के कारण हैं। जो वीतराग की आज्ञा का उपासक है उसे राग और द्वेष से रहित बनना चाहिए। राग-द्वेष से रहित होने से कर्मों का बन्धन नहीं हो सकता हि (रागरहित ) बनना चाहिए । अतएव Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 1 अथवा 'रण' इस शब्द का संस्कृत रूप "अनिहतः " ऐसा भी हो सकता है । निहत का है जो कभी न हो । अर्थात् इन्द्रिय एवं कषायादि आभ्यन्तर शत्रुओं द्वारा जो कभी हत नहीं हो सकता वह अहित है । जो जिनेन्द्र प्रवचन में अनुष्ठान करने वाला है वह पंडित है । वह भाव शत्रुओं से पराजित होने वाला नहीं है। जो भाव शत्रुओं से पराजित न हो वही कर्मों पर विजय पाने वाला है । राग द्वेषरहित होकर साधक इस प्रकार आत्मस्वरूप का चिन्तन करके अन्तर्वृत्ति को जागृत करे कि श्रात्मा एक है । वह धन, धान्य, हिरण्य, पुत्र, स्त्री आदि से भिन्न है । मैं ये बाह्य पदार्थ नहीं हूँ, ये बाह्य पदार्थ मैं नहीं हूँ, ये बाह्य पदार्थ मेरे नहीं हैं, मैं इन सब से भिन्न चैतन्य स्वरूप हूँ। इनका और मेरा सम्बन्ध वास्तविक नहीं किन्तु औपाधिक है । अतएव यह सम्बन्ध अनित्य है, ये मुझ से अलग होएगें। मैं इन्हें छोड़कर जाऊँगा इत्यादि स्वपर के स्वरूप का यथार्थ चिन्तन करना चाहिए और एकत्व भावना द्वारा अन्तर्वृति को बढ़ाना चाहिए। एकत्व भावना का स्वरूप इस प्रकार है : T संसार एवायमनर्थसारः कः कस्य कोऽत्र स्वजनः परो वा । सर्वे भ्रमन्तः स्वजनाः परे च भवन्ति भूत्वा न भवन्ति भूयः ॥ अर्थात् - यह संसार अनर्थ रूप है, इसमें कौन किसका है ? कौन स्वजन है और कौन पर है ? इस संसार रूपी समुद्र में फिरते हुए आज जो स्वजन हैं वे कल पर जन हो जाते हैं जो परजन हैं वे स्वजन बन जाते हैं अथवा जो अभी हैं वे कभी फिर अपने नहीं भी होंगे। तात्पर्य यह है कि इस चञ्चल असार संसार में कौन किसका हो सकता है ? कोई किसी का नहीं ? श्रात्मा ही अकेला अपना है। और भी कहा है विचिन्त्यमेतद् भवताहमेको न मेऽस्ति कश्चित् पुरतो न पश्चात् । स्वकर्मभिर्भ्रान्तिरियं ममैव अहं पुरस्तादहमेव पश्चात् ॥ अर्थात् यह विचारना चाहिए कि मैं अकेला हूँ, मेरे आगे और पीछे कोई नहीं है । केवल मोहनीय कर्म के कारण मेरे तेरे की भ्रान्ति है । वस्तुतः पहिले भी मैं और पीछे भी मैं हूँ। मैं ही अपना स्वजन हूँ । अन्य कोई नहीं । यह श्रात्मा स्वयं अकेला कर्मों का कर्त्ता हैं और यही स्वयं उनके फल का भोक्ता है । यह जीव अकेला जन्म लेता है, अकेला मरता है - भवान्तर में गमन करता है । इस प्रकार एकत्व भावना के चिन्तन द्वारा बहिर्वृत्तियों पर विजय प्राप्त करना चाहिए और अन्तर्वृत्ति का विकास करना चाहिए । माभिमुख दृष्टि प्रकट करने के लिए तपश्चर्या की आवश्यकता बताई गई है। तप के द्वारा पूर्वोपार्जित कर्मों का क्षय हो जाता है। पूर्व सूत्र में आरम्भ का त्याग करने का उपदेश देकर संवर के द्वारा नवीन कर्मों का श्रागमन रोकने का कहा है। नवीन कर्मों के श्रागमन के रुकने पर भी पूर्व सचित कर्म तो बने रहते हैं । श्रतएव उनका क्षय करने के लिए तप करने का विधान किया है । जीव For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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