SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 335
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ...३०४ ] [प्राचाराग-सूत्रम् दुख सहन करने का इसका शौक है । दुख से ही इसका सम्बन्ध जुड़ गया है। तभी तो यह दुख सहते हुए भी दुखों के कारणों को नहीं छोड़ता है बल्कि और भी दुख के कारणों को एकत्रित करता है। एक बार यूरोप के किसी देश में एक व्यक्ति को किसी अपराध में आजीवन कैद की सजा दी गई । वह व्यक्ति जेलखाने की अंधेरी कोठरी में बंद कर दिया गया। उसके जीवन का बहुत-सा भाग उसी अंधेरी कोठरी में व्यतीत हो गया। बहुत वर्षों के बाद राज्य के किसी शुभ प्रसंग के उपलक्ष में कैदियों को मुक्त किया गया । जब वह व्यक्ति भी जेलखाने से बाहर लाया गया तो वह बाहर के खुले वातावरण को देखकर घबरा गया और रोते हुए चिल्लाने लगा कि मुझे तो मेरी अंधेरी कोठरी में ही रहने दो। मैं बाहर प्रकाश में नहीं रह सकता । लोगों को बड़ा आश्चर्य हुआ। मतलब यह है कि अपने जीवन का बहुत-सा भाग जेलखाने की अँधेरी कोठरी में ही व्यतीत करने से उसको अँधेरे में ही रहने की टेव हो गयी थी अतः वह प्रकाश को न सह सका । इसी तरह दुखों को सहन करते हुए प्राणी इतने अभ्यस्त हो गये हैं कि वे और भी दुख के कारणों को ही एकत्रित करते हैं। मानों दुख ही उनका चिरसंगी है। इस तरह इच्छा और विषयों के दास बने हुए प्राणी घोर कुकर्म करके नरक के भयंकर दुख सहन करते हैं । इन्द्रियों के विशेष रूप से दास बने हुए नास्तिक मत के प्रवर्तक बृहस्पति कहते हैं किः पिब खाद च चारुलोचने ! यदतीतं वरगात्रि ! तन्न ते । न हि भीर ! गतं निवर्त्तते समुदयमात्रमिदं कलेवरम् ॥ अर्थात्-हे सुन्दर नेत्र वाली ! खूब खाओ और पीओ। हे सुन्दर शरीर वाली ! जो चला गया है वह अब तेरा नहीं है । हे भीरु ! गया हुआ लौट कर नहीं आता । यह शरीर परमाणुओं का समूहमात्र है। न स्वर्ग है और न नरक । न पाप है न पुण्य । आनन्द से खाओ-पीओ और मौज करो। द्रव्य न हो तो “ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्” ऋण करके भी घृतपान करो। यह नास्तिक की विचार-धाराभारी मिथ्यात्व का परिणाम है। ऐसे प्राणी दुखों से परिचित रहते हैं। जैसे विष का कीड़ा विष में ही मस्त रहता है इसी तरह ये मोहासक्त और संसारासक्त प्राणी संसार के दुखों में ही सुख मानते हैं। ये इन सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए अति भयंकर क्रूर कर्म करते हैं । जो भयंकर कर्म करते हैं । वे भयंकर दुख वाले स्थानों में-नरक में जाते हैं । जो क्रूरकर्म नहीं करते हैं उन्हें भयंकर नरकादि स्थानों में नहीं उत्पन्न होना पड़ता । जीवात्मा जैसे जैसे कर्म करता है उसी तरह उसका चैतन्य विकृत होता जाता है । जो निकृष्ट कर्म करता है उसे निकृष्ट स्थान में जाना पड़ता है। यह जानकर प्रत्येक मुमुक्षु व्यक्ति अधम कार्यों से डरे ताकि निकृष्ट स्थानों में जाना न पड़े। यह समस्त कथन श्रुतकेवलियों के द्वारा कहा हुआ है । जो सत्य इतकेवली कहते हैं वही केवलज्ञानी कहते हैं और केवलज्ञानी जो कहते हैं वही श्रुतकेवली कहते हैं । यह कथन करके सूत्रकार श्रुतकेवली और केवलज्ञानियों के कथन की एक रूपता प्रकट करते हैं। केवली तो समम्त धनघाति-कमों के विलय हो जाने पर उत्पन्न हुए निरावरण केवलज्ञान द्वारा समस्त चराचर जगत् के भावों को हस्तामलकवत् जानते हैं अतः उनकी प्ररूपणा सत्य ही है और श्रुतकेकली वह उपदेश देते हैं जो केवलियों ने दिया है। अतएव श्रुतकेवली और केवलियों का कथन सम्पूर्ण सत्य है । दश पूर्व से लेकर चौदह पूर्व का ज्ञान धारण करने वाले श्रुतकेवली कहलाते हैं। तीर्थंकर देव के उपदेशानुसार ही श्रुतकेवली की प्रवृत्ति होती है अतएव इनकी वाणी में और तीर्थंकर की वाणी में एकरूपता होती है इस प्रकार के समयज्ञ और सद्वर्ताव वाले महापुरुषों की शिक्षा का प्रत्येक साधक को अनुसरण करना चाहिए। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy