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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir सम्यक्त्व नाम चतुर्थ अध्ययन - प्रथमोद्देशकः तीन अध्ययनों की व्याख्या की जा चुकी है। अब चतुर्थ सम्यक्त्व नामक अध्ययन प्रारम्भ किया जाता है। प्रथम शस्त्र-परिज्ञा अध्ययन में षड् जीव-निकाय की सिद्धि द्वारा जीव तत्व की और व्यतिरेक रूप से अजीव तत्त्व की प्ररूपणा की गई है। तथा षड् जीवनिकाय को जानकर उनके वध से निवृत्त होने का उपदेश दिया गया है । जीवनिकाय के वध से श्रास्रव होता है यह कहकर व तत्त्व और विरति से संवर होता है इससे संवर तत्त्व का कथन हुआ समझना चाहिए। इस प्रकार प्रथम अध्ययन में जीव, जीव और संवर इन चार तत्त्वों का वर्णन किया गया है। द्वितीय लोक-विजय अध्ययन में बन्ध और निर्जरा का कथन किया गया है। तृतीय शीतोष्णीय अध्ययन में त्याग, परीषह एवं उपसर्गों की सहनशीलता और कषाय-त्याग का वर्णन किया है। इसका फल मोक्ष है अतएव इस अध्ययन में मोक्ष का कथन समझना चाहिए। पुण्य और पाप बन्ध के अन्तर्गत होने से बन्ध के वर्णन से इनका वर्णन समझना चाहिए। इस प्रकार तीन अध्ययनों में नव तत्त्वों की व्याख्या की गई है। तत्त्वों पर श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन ( सम्यक्त्व) कहा जाता है अतएव अब इस अध्ययन में सम्यक्त्व पर विचार किया जाता है। सम्यक्त्व का अर्थ है निर्मलदृष्टि, सच्ची श्रद्धा और सच्चा लक्ष्य । सम्यक्त्व ही मुक्ति महल का प्रथम सोपान है। जब तक सम्यक्त्व नहीं है तब तक समस्त - ज्ञान और समस्त चारित्र मिथ्या है। जैसे अंक के बिना बिन्दुओं की लम्बी लकीर बना देने पर भी उसका कोई अर्थ नहीं होता - उससे कोई संख्या तैयार नहीं होती उसी प्रकार सत्यक्त्व के बिना ज्ञान और चारित्र का कोई उपयोग नहीं और वे शून्यवत् निष्फल हैं । अगर सम्यक्त्व रूपी अंक हो और उसके बाद ज्ञान और चारित्र हों तो ज्यों प्रत्येक शून्य से दस गुनी कीमत हो जाती है त्यों वे ज्ञान और चारित्र मोक्ष के साधक होते हैं । मुक्ति के लिए सम्यग्दर्शन की सर्व प्रथम अपेक्षा रहती है । सम्यग्दर्शन से ही ज्ञान और चारित्र में सम्यक्त्व आती है इसीलिए दर्शन, ज्ञान और चारित्र तीनों ही भाव सम्यक्त्व होते हुए भी सम्यक्त्व शब्द सम्यग्दर्शन के अर्थ में ही रूढ़ हो गया है । यह सम्यग्दर्शन की प्रधानता सूचित करता है । सम्यक्त्व का स्वरूप बालजनों को सरलता से समझाने के लिए एक दृष्टान्त दिया गया है; वह इस प्रकार है: - उदयसेन नाम का एक राजा था। उसके वीरसेन और शूरसेन नाम के दो पुत्र थे । वीरसेनकुमार अन्धा था इसलिए वह गान कला आदि तद्योग्य कलाएँ सीखा। शूरसेन ने धनुर्विद्या सीखी। वह उसमें पारंगत हुआ और लोक में उसकी कीर्ति हुई । यह सुनकर वीरसेनकुमार ने राजा से प्रार्थना की कि मैं भी द्या का अभ्यास करूँ । उसका अति आग्रह होने से राजा ने श्राज्ञा दे दी। योग्य शिक्षक और श्रुतिशय बुद्धि के कारण वह शब्दवेधी हुआ । कालान्तर में कोई शत्रु राजा पर चढ़ आया । तब वीरसेन ने राजा से युद्ध में जाने की आज्ञा माँगी । राजा की आज्ञा लेकर वह शत्रु सैन्य को जीतने का यत्न करने लगा । परन्तु शत्रु ने जान लिया कि वीरसेन अन्धा है और शब्दवेधी है अतएव शत्रु पक्ष मूक रहा और For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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