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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तृतीय अध्ययन चतुर्थोदेशक ] [ २७५ भावार्थ - जो एक ( मोहनीय ) का क्षय करता है वह अनेक का क्षय करता है जो अनेक का क्षय करता है वह एक का क्षय करता है । जो श्रद्धावान् है, तीथकर की आज्ञानुसार अनुष्ठान करने वाला है और बुद्धिमान् है वह क्षपक श्रेणी के योग्य है । जो भगवान् की आज्ञा से लोक के यथार्थ स्वरूप को जानता है उसे किसी का भय नहीं रहता और किसी को भी उसका भय नहीं रहता है । शस्त्र एक दूसरे से तेज या मन्द होते हैं परन्तु शस्त्र में यह तरतमता नहीं है अर्थात् असंयम में तरतमता है परन्तु आत्म-स्वरूप में ( संयम में ) तरतमता नहीं है । विवेचन - साधक, साधक अवस्था में कर्मों का क्षय करने के लिए पुरुषार्थ करता है । जो साधक मोहनीय कर्म का क्षय कर देता है वह शेष अनेक कर्मप्रकृतियों का क्षय कर देता है। क्योंकि मोह ही संसार का कारण है और मोह ही आत्मा के प्रकाश का आवरण है । जब यह दूर हो जाता है तो शेष कर्मों का भी तय कर दिया जाता है। अनेक कर्मप्रकृतियों के तय करने पर मोहनीयकर्म का क्षय होता है । यह विवेचन "एगं नामे से बहुं नामे" इस सूत्र में कर दिया गया है। प्रश्न होता है कि जो बात एक जगह कह दी है उसे बार-बार क्यों कहा गया है ? इसका उत्तर यह है कि शास्त्रकार विद्वत्ता बताने के लिए शास्त्र रचना नहीं करते परन्तु विनेयजनों के अनुग्रह के लिए शास्त्ररचना करते हैं। शिष्य वर्ग को 'समझाने के लिए और किसी वस्तु पर विशेष जोर देने के लिए पुनः पुनः कथन करने में कोई हानि नहीं है । इस पद का अर्थ यों भी किया जा सकता है कि जो क्षपकश्रेणी पर श्रारूढ जीव अनन्तानुबन्धी क्रोध काय करता है वह अन्य भी दर्शनमोहनीय आदि अनेक प्रकृतियों का क्षय करता है । आयुष्य बँध जाने पर भी दर्शनमोहनीय आदि सात प्रकृतियों (अनन्तानुबन्धी ४, दर्शनमोहनीय ३ ) का क्षय कर सकता है । जो अन्य प्रकृतियों का क्षय करता है वह अनन्तानुबन्धी क्रोध का क्षय करता है । अब सूत्रकार यह बताते हैं कि क्षपकश्रेणी के योग्य कौन हो सकता है। इस योग्यता के लिए शास्त्रकार ने प्रथम गुण श्रद्धा का होना बताया है । जो व्यक्ति जिनेन्द्र देव की आज्ञा में श्रद्धा रखता है वही क्षपकश्रेणी के योग्य होता है। जब तक सत्पुरुषों के प्रति श्रद्धा नहीं होती वहाँ तक कर्त्तव्यों में निश्चयता नहीं आ पाती । सम्यक् श्रद्धा के विना आज्ञा का यथार्थ पालन नहीं हो सकता । आज्ञा का पालन तभी . हो सकता है जब किसी के प्रति अर्पणता के भाव हों । अर्पणता तो श्रद्धा से ही आती है । इसीलिए गीता में कहा है कि - "श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्” अर्थात् श्रद्धा से ही श्रात्मज्ञान होता है । प्रथम श्रद्धा होनी चाहिए। श्रद्धा होने पर ही ज्ञान जागृत होता है । श्रद्धा हृदय की वस्तु है । तदपि सच्ची श्रद्धा तब उत्पन्न होती है जब सात्विक बुद्धि जागृत हो । हृदय अभिमान से रहित होता है तब किसी के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो सकती है । महापुरुषों का कथन . है कि सत्पुरुष, शास्त्र और विवेक बुद्धि से सच्ची श्रद्धा का जन्म होता है । केवल तर्क से अथवा भावनामात्र से ऐसी श्रद्धा नहीं आ सकती । शुद्ध हृदय और सद्बुद्धि होने पर ही श्रद्धा ठीक होती है । - श्रद्धा के लिए जिज्ञासा, त्याग और विवेक की आवश्यकता है। श्रद्धा से ही साधना में निश्चलता आती है अतएव प्रथम गुण श्रद्धा का होना है । जब जिनेन्द्र के वचनों पर श्रद्धा हो जाती है तब उसका पालन भी यथोचित रीति से हो सकता है। अतएव श्रद्धा के बाद दूसरा गुरु जिमाज्ञा के यथावत् पालन करने का है । तीसरा गुण "मेधावी" होना चाहिए । मेधावी का अर्थ बुद्धिमान, विवेकशील है । जो बुद्धिमान और विवेकी होगा वह व्यक्ति क्षपकश्रेणी के योग्य होता है । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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