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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [भ] की भिदुरता, विरत की मुक्ति, परिग्रह ही भय का कारण है, संयम में पराक्रम, बन्ध-मोक्ष की आत्मस्थता, प्रमत्त का बाह्यत्व । ३ तृतीय उद्देशक: ३७० ३८७ कर्मसन्धि-क्षपण के लिए पराक्रम, पूर्वोत्थायी पश्चाग्निपाती आदि भंग, आत्म-युद्ध का उपदेश, औदारिक-मानव देह की दुर्लभता, निश्चयसम्यक्त्व पार चारित्र की व्याप्ति, अप्रमत्तता से चारित्र की सिद्धि । ४ चतुर्थ उद्देशक: ३८१ ४०४ अव्यक्त मुनि की दुर्विहारता, अज्ञ को होने वाले क्रोधादि, गुरु-सेवा, उपयोगपूर्वक क्रिया करते हुए भी होने वाली प्राणी-हिंसा से होने वाला अल्प-बंध, आकुट्टीकृत कर्मविवेक, उनोदरी आदि तप। ५ पञ्चम उद्देशक: ४०५ ४२१ सरोवर के समान आचार्य, विचिकित्सा से असमाधि, अज्ञान से होने वाला निर्वेद, जिनप्रवेदित की सत्यता-निश्शंकता, सम्यक्त्व के षड्भंग, हन्तव्य-घातक की एकता, आत्मा और ज्ञान की अभिन्नता। ६ षष्ठ उद्देशक: ४२२ ४३३ सत्पुरुषों की आज्ञा का फल, प्रवादस्वरूप, आज्ञा का अनुल्लंघन, आसक्ति ही आस्रव है, मुक्तात्मा का स्वरूप । ६ धूत अध्ययन ४३४ से ४६० १ प्रथम उद्देशक:-- ४३४ ४५१ उत्थितों का मुक्तिमार्ग में पराक्रम, आसक्तों के दोष, कूर्म-हुद का दृष्टान्त, सोलहरोग, नरक के दुःख, प्राणि-हिंसा महाभय है, कामासक्ति का दुखद परिणाम, भङ्गुरशरीर, कर्म धूनन का उपाय, कुटुम्ब-मोह पर विजय। २ द्वितीय उद्देशक: ४५२ ४६५ प्रव्रजित हो जाने पर भी पूर्वग्रहों के उदय से संयम कात्याग करने वाले की दशा, कुशीलस्वरूप, प्रवर्धमान अध्यवसाय, आज्ञा ही धर्म है, शुद्ध एषणा, परीषह-सहन। ३ तृतीय उद्देशक:--- ..४६६ ४७७ अचेलक को वस्त्रविचारणा का अभाव, साधु-शरीर का कृशत्व, आर्य धर्म में रति, गुरु द्वारा शिष्यों का योग्य बनाया जाना। ४ चतुर्थ उद्देशक: ४७८ ४६० प्रमादियों की गुरु के प्रति अवज्ञा, दूसरों की निन्दा द्वितीय बालता है, शिथिल होने पर भी सत्यप्ररूपक, बाह्यक्रियोपेत होने पर भी आत्मविरा धक, धर्म की घोरता, समुत्थित होने पर भी बाद में आने वाली दीनता, उद्यतविहारियों के साथ रहने पर भी एक-एक का शिथिलाचार-) ५ पश्चम उद्देशकः (क) से (ट) तक परीषह-सहनता, धर्मोपदेश, धर्मकथनप्रकार, मृत्युकालीन दृढ़ता। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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