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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir शीतोष्णीय नाम तृतीय अध्ययन — चतुर्थोद्देशकः ( कषाय-त्याग ) शीतोष्णीय अध्ययन के तीन उद्देशक कहे जा चुके हैं। अब चतुर्थ उद्देशक प्रारम्भ होता है । इन तीन उद्देशकों में भावनिद्रा, त्याग मार्ग की आवश्यकता और त्याग में अप्रमत्तता का वर्णन किया गया है । प्रस्तुत उद्देशक में त्याग का फल प्रतिपादित करेंगे। तृतीय उद्देशक में यह कहा गया है कि बाह्य-दृष्टि से पापकर्म नहीं करने से या शारीरिक कष्ट सहन करने मात्र से कोई श्रमण नहीं हो सकता वरन् निराबाध रूप से संयम का अनुष्ठान करने से ही श्रमणत्व प्रकट होता है । संयम का लक्ष्य सत्य का साक्षात्कार है यह पूर्व उद्देशक में बतलाया गया है। इस सत्य को लक्ष्य में रखकर जो क्रिया करता है वह समभाव की क्रिया होने से सार्थक है । यदि उद्देश्य शुद्ध नहीं है तो वह शुद्ध चारित्र की क्रिया नहीं कही जा सकती है। इसलिए कई देह का दमन करने वाले बाल-तपस्वियों का कष्ट सहन आत्मिक उन्नति का कारण नहीं कहा गया है। जहाँ समभाव-रूप शुद्ध लक्ष्य है वहीं चारित्र है । जहाँ समभाव है वहाँ साधुता है। जहाँ साधुता है वहाँ समभाव होना ही चाहिए । यह समभाव कषायों का त्याग किए बिना नहीं प्रकट हो सकता इसलिए इस उद्देशक में कषाय-त्याग का उपदेश दिया गया है। त्यागी किसी वेश, दर्शन, पंथ, संप्रदाय और फिरके से नहीं पहचाना जाता है लेकिन कषायों का शमन ही उसके त्याग की आदर्शता का मापक यन्त्र है । जहाँ जितनी कषायों की शान्ति या क्षय है वहाँ उतनी ही त्यागवृत्ति है। त्याग कषायों को हल्का करता है । जो त्याग कषायों को बढ़ाता है वह त्याग ही नहीं है । कषायों की उपशान्ति होना, यह त्याग का फल है । अतः इस उद्देशक में कषायत्याग के लिए उपदेश दिया जाता है: सेवंता कोहं च माणं च मायं च लोभं च, एयं पासगस्स दंसणं, उवरयसत्थस्स, पलियंतकरस्त यायाणं सगडभि । संस्कृतच्छाया[ स वमिता क्रोधञ्च, मानञ्च, मायाञ्च, लोभं च एतत् पश्यकस्य दर्शनमुपरतशस्त्रस्य पर्यन्तकरस्यादानं स्वतभिद् ( भवति ) । शब्दार्थ - से वह त्यागी । कोहं च= क्रोध को । माणं च=मान को | मायं च= माया को । लोभं च =और लोभ को । वंता = छोडने वाला होता है । श्रयाणं = जो कर्मास्रवों को 1 वमन करता है । सगडब्धि वह अपने कर्मों का भेदन करता है। एयं = यह | उवरयसत्थस्स= For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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