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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir २५४ ] [ आचाराङ्ग-सूत्रम् शरीर का सम्बन्ध आत्मा के साथ औपाधिक है। ये पर-पदार्थ चाहे किसी भी निमित्त से आगे या पीछे जाने वाले तो हैं ही तो शत्र इनका हरण करके विशेष हानि नहीं पहुंचा सकता है लेकिन जब आत्मा में दुरात्मता प्रकट होती है तब यह घोर अनिष्ट कर देता है जो भवान्तरों में भी दुखों का कारण होता है। राग-द्वेष और कषायमय परिणति आत्मा में विकार पैदा करती है जिनके कारण संसार के भयंकर दुखों का भोग बनना पड़ता है । बलवान् शत्र एक भव में कष्ट दे सकता है परन्तु दुष्ट अध्यवसाय रूप आत्मपरिणति भयंकर शत्रु बनकर जन्म-जन्मातरों तक शत्रुता रखकर पीड़ित करती है । अतः अशुभ परिणति वाला आत्मा अपना बड़ा भारी शत्रु है । कहा है: दुपत्थित्रो अमित्तं अप्पा सुप्पत्थित्रो अ ते मित्त । सुहदुक्खकारणाओ अप्पा मित्तं अमित्तं य ॥ अर्थात्-विमार्ग पर चलने वाला अात्मा अपना शत्रु है और सन्मार्ग स्थित आत्मा परम मित्र है। यह श्रात्मा सुप्रस्थित होकर सुख देता है अतः मित्र है और यही आत्मा दुःप्रस्थित होकर दुख देता है अतः वैरी है । पुनश्च अप्येकं मरणं कुर्यात् संक्रुद्धो बलवानरिः । मरणानि त्वनन्तानि जन्मानि च करोत्ययम् ॥ अर्थात्-बलवान् क्रोधित शत्र अधिक से अधिक एक बार मार सकता है किन्तु यह दुःप्रस्थित प्रात्मा अनन्त जन्म और मरण करवाता है । . जैनदर्शन का कर्मवाद का सिद्धान्त निराश एवं अकर्मण्य बने हुए आत्माओं में वह नवजीवन डाल देता है जिसके कारण उन्हें आत्मशक्ति की प्रतीति होती है और आत्मदर्शन होने के बाद वे ऐसा सिंहनाद करते हैं जिसे सुनकर कर्मरूपी कुरंग भाग जाते हैं। यह आत्म-सामर्थ्य और स्वावलम्बन का बोध-पाठ है । साधक का कर्तव्य है कि वह सूत्रकार के इस सूत्र के द्वारा श्रात्मा में रही हुई अनन्त शक्ति का साक्षात्कार करे और अपनी आत्मा को अपना मित्र समझ कर धीरतापूर्वक अपने मार्ग पर प्रगति करता हुआ बढ़ता चले। . जं जाणिजा उच्चालइयं तं जाणिजा दूरालइयं, जं जाणिजा दूरालइयं तं जाणिजा उच्चालइयं । - संस्कृतच्छाया- जानीयादुच्चालयितारम् तं जानीयाद्रालायकम्, यं जानीयात् दूरालयिक तं जानीयादुच्चालयितारम् । शब्दार्थ-जंजिसको । उच्चालइयं कर्मों को दूर करने वाला । जाणिजा समझना चाहिए । तं उसको । दूरालइयं मोक्ष प्राप्त करने वाला । जाणिजा=समझना चाहिए । जं दूरालइयं जिसको मोक्ष प्राप्त करने वाला । जाणिजा-समझना चाहिए । तं-उसको । उच्चालइयं= कर्मों का नाश करने वाला समझना चाहिए। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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