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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir तृतीय अध्ययन द्वितीयोदेशक ] [ २२५ यहाँ यह शंका की जा सकती है कि जब एक कर्म का उदय होता है तो साथ ही दूसरे कर्मों का बन्ध हो जाता है तो जीव कर्म की परम्परा से छूटकर निष्कर्मा कैसे बन सकता है ? जैसे ज्ञानावरणीय का उदय होने पर जीव दर्शनावरणीय कर्म बाँध लेता है और दर्शनावरणीय के उदय में दर्शन - मोहनीय आदि बाँध लेता है इस तरह उदय समय नवीन बंध होने पर कर्मों का अभाव कैसे होगा ? जिस प्रकार कोई व्यक्ति किसी साहूकार से एक हजार रुपये ले गया और फिर एक हजार जमा कराकर नये दो हजार रुपये ले गया तो उसका खाता चालू रहेगा बन्द नहीं होगा। इसी प्रकार उदय के समय यदि बन्ध हो तो नवीन कर्म लगे रहेंगे। कर्मों का अन्त नहीं आ सकता तो निष्कर्मा कैसे बना जा सकता है ? इस शंका का समाधान यह है कि कर्मों के उदयकाल में जीव की जैसी परिणति (विचार-धारा) होती है तदनुसार शुभ या अशुभ बन्ध होता है और बन्ध नहीं भी होता है। कर्मों के फल भोगने के समय जीव यदि ध्यान आदि बुरे भावों से फल भोगता है तो अशुभ कर्मों का बन्ध होता है और शुभ भावों से फल भोगता है तो शुभकर्मों का बन्ध होता है परन्तु राग-द्वेष-रहित समभाव से कर्मों का फल भोगता है तो नवीन कर्मों का बन्ध नहीं होता । पुराने कर्म नष्ट होते रहते हैं और नवीन कर्म समभाव के कारण नहीं बँधते हैं इस तरह जीव अकर्मा बन जाता है। जिस प्रकार कोई व्यक्ति नया कर्ज न करे और पुराना अदा करता जाय तो वह ऋणमुक्त हो जाता है उसी तरह नवीन कर्मों का उपार्जन न हो और पुराने क्षय जाय तो जीव कर्म-मुक्त बन सकते हैं । तप संयम आदि के द्वारा रागादि को और उनके कार्य-कर्मों को छेदकर निष्कर्मा बनने के लिए सूत्रकार ने इस सूत्र में फरमाया है। साथ ही साथ मोह को मूलकर्म कहकर सूत्रकार ने यह भी बताया है कि मोहपूर्वक आसक्ति के साथ की जाने वाली प्रत्येक क्रिया मूलकर्म है और आसक्ति रहित होकर की जाने वाली क्रिया कर्म है । श्रासक्ति-रहित की जाने वाली क्रियाओं से बँधने वाले कर्मों का अन्त भी सरलता से किया जा सकता है। श्रासक्ति-पूर्वक की हुई क्रियाएँ आत्म-विकास को रोकने वाली हैं और अनासक्त होकर की हुई क्रिया आत्म-विकास की अवरोधिका नहीं है । कर्मों के गम्भीर रहस्य को समझे बिना निरासक्ति संभव है। लोकसंसर्ग और पदार्थों के संसर्ग में रहकर निरासक्त रहना अत्यन्त कठिन है । इसीलिये त्यागमार्ग का उपदेश दिया गया है। लोकसंसर्ग में भी निरासक्त रहना यह विरले पुरुषों का ही काम है। अतएव दुनियाँ के कार्यों को करते हुए निरासक्ति को साधना अपवाद - मार्ग है उत्सर्गमार्ग नहीं; उत्सर्गमार्ग में निरासक्त रहने के लिए त्यागमार्ग पर चलना ही सरल उपाय है। तात्पर्य यह हुआ किमूलक और कर्म के विवेक को समझ कर उनसे अपनी आत्मा को पृथक् करके - निष्कर्मा बनकर अपने पवित्र आत्मस्वरूप के दृष्टा बनना चाहिए । एस मरणापमुच्चइ, से हु दिट्ठ भए मुणी, लोगंसि परमदंसी विवित्तजीवी, उवसंते, समिए, सहिए, सया जए कालकंखी परिव्वए । संस्कृतच्छाया- - एषः मरणात् प्रमुच्यते, स एव दृष्टभयो मुनिः लोके परमदर्शी विविक्तजीवी, उपशान्तः, समितः, सहितः सदा यतः कालाकाङ्क्षी परिव्रजेत् । शब्दार्थ –एस=यह मूलाग्रकर्म विवेचक | मरणा=मरण से | पमुच्चयुक्त हो जाता है। से हु-वही । मुखी मुनि । दिट्ठ भए संसार से डरने वाला। लोगंसि-लोक में । परमदंसी = मोक्ष For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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