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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir द्वितीय अध्ययन पंचमोद्देशक ] गया है। गृहस्थ मनुष्य विविध प्रयोजनों से अपने तथा अपने कुटुम्बी और सम्बन्धियों के लिए आहार बनाते हैं। उस आहार में प्रायः थोड़ा बहुत उनके यहाँ बचा रहता है। उसी बचे हुए अन्न को भिक्षावृत्ति से प्राप्त कर उसीपर संयमियों को निर्वाह करना चाहिए । इससे साधु को आरम्भ-जन्य दोष भी नहीं लगता और जीवन का निर्वाह भी सुगमता से हो जाता है । संयमी पुरुष प्रथम ही इन्द्रियों को अपने वश में कर लेते हैं अतः वे स्वाद आदि इन्द्रियों के वशवर्ती नहीं होते हुए मात्र जीवन निर्वाह के लिए शेष बचा हुआ थाहार ग्रहण करते हैं । जो प्राणी खाने के लिए जीते हैं उन्हीं के लिए स्वाद का प्रश्न उपस्थित होता है परन्तु संयमी पुरुष खाने के लिए नहीं जीते वरन् संयमी जीवन के लिए खाते हैं अतः उनके लिए स्वाद का प्रश्न ही नहीं रहता है । संयमी के लिए छह कारणों से आहार करने का विधान किया है। वे छह कारण इस प्रकार हैं-(१) क्षुधा वेदनीय की शान्ति के लिए (२) अपने से बड़े प्राचार्य आदि की सेवा के लिए (३) मार्ग में यतनापूर्वक चलने के लिए (४) संयम की रक्षा के लिए (५) प्राणों की रक्षा के लिए तथा (६) स्वाध्याय एवं धर्म-साधना के लिए। इससे यह सिद्ध होता है कि संयमी धर्म और संयम की आराधना के लिए ही आहार ग्रहण करते हैं। अहिंसा और संयम के आराधक तथा धर्म के प्रतिनिधि रूप जैन साधुओं के लिए आहारादि की प्राप्ति के लिए जिस भिक्षावृत्ति का विधान किया गया है उसके कई नियमोपनियम बताये गये हैं। ४२ दोषों से रहित भिक्षा ही साधु के लिए कल्पनीय है। भोजन के ४७ दोष हैं उनका स्वरूप इस प्रकार है:-१६ उद्गम दोष, १६ उत्पादन दोष, १० एषणा दोष और ५मण्डल दोष । उद्गम दोष गृहस्थ के द्वारा लगते हैं । उनके नाम ये हैं (१) आहाकम्म (२) उद्देसिय (३) पूइकम्मे (४) मीसजाए (५) ठवणे (६) पाहुडियाए (७) पाओअर (८) कीय (६) पामिच्चे (१०) परियट्टए (११) अभिहडे (१२) उन्भिन्ने ( १३) मालाहढे (१४) अच्छिज्जे (१५) अणिसिट्टे (१६) अज्झोयरए । (१) आहाकम्म-सामान्य रूप से साधु के उद्देश्य से तैयार किया हुआ आहार लेना आहाकम्म दोष है। (२) उद्देसिय-किसी विशेष साधु के निमित्त बनाया हुआ आहार लेना। (३) पूइकम्मे-विशुद्ध आहार में प्राधाकर्मी श्राहार काथोड़ासा भाग मिल जाने पर भी उसे लेना। (४) मीसजाए--गृहस्थ के लिए और साधु के लिए सम्मिलित बनाया हुआ आहार लेना। (५) ठवणे-साधु के निमित्त रखा हुआ थाहार लेना। (६) पाहुडियाए-साधु को आहार देने के लिए महमानों की जीमनवार को आगे पीछे किये जाने पर आहार लेना। (७) पात्रोअर-अँधेरे में प्रकाश करके दिया जाने वाला आहार लेना। (८) कीए-साधु के लिए खरीदा हुआ आहार लेना। (६) पामिच्चे-साधु के निमित्त किसी से उधार लिया हुआ आहार लेना। (१०) परियट्टए-साधु के लिए सरम-नीरस वस्तु की अदला-बदली करके दिया जाने वाला श्राहार लेना। (११) अभिहडे-सामने लाया हुआ आहार लेना। (१२) उम्भिन्ने-भूगृह में रक्खे हुए, मिट्टी, चपड़ी आदि से छाबे हुए पदार्थ को उघाड़ कर दिया जाने वाला आहार लेना। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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