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रुधिर वैकारिकी
૧.
भर जाती है तथा लाल कणों का ठीक-ठीक निर्माण नहीं हो पाता । जो लाल कण बनते भी हैं उनमें शोण वर्तुलि का बहुत अभाव पाया जाता है ।
रक्त के इस चित्र का कारण लोहा है । लोहा आमाशयिक अम्ल में घुलनशील है। वह वहां घुलता है घुलकर रक्त में होकर अस्थिमज्जा तक जाता है । इसका उपयोग अस्थिमज्जा किया करती है तथा ऋजुरूहों को रुधिराणुओं में परिवर्तित करती रहती है । अस्तु यदि आमाशय में अग्नि का अभाव है अर्थात् अनीरोदता या अनम्लता है तो लोहे का विलयन नहीं हो सकेगा। एक बात और समझ लेनी चाहिए और वह यह कि जब स्वस्थ शरीर में कुल ४ माषा लोहा रहता है फिर इतनी बड़ी मात्राओं में लोहे के प्रयोग का निर्देश क्यों किया जाता है ? उसका कारण यह दिया जाता है कि लोहे की बड़ी-बड़ी मात्राओं की आमाशय में उपस्थिति उसके घोलने के लिए आम्लिक प्रतिक्रिया को बहुत उग्रकर देती है और पर्याप्त मात्रा में लोहा शरीर में घुल कर पहुंच जाता है । लोहे के साथ थोड़ा ताम्र भी यदि चिकित्सा के लिए मिला लिया जावे तो उपवर्णिक सूक्ष्म कायाण्विक रक्तक्षय में उसका उतना ही प्रभाव पड़ता है जितना कि परमवर्णिक स्थूल कायाण्विक रक्तक्षय में यकृच्चिकित्सा ( liver therapy ) का पड़ता है । अन्य धातुओं के उपयोग का भी लाभदायक आभास मिलने लगा है ।
उपर्युक्त रक्तक्षय से पीडित पुरुष की आर्थिक स्थिति का अवश्य पता लगाना चाहिए। स्त्री हो तो उसके मासिक धर्म अथवा सगर्भता के सम्बन्ध में विचार कर लौहताम्र योगों का उपयोग करने से इस रक्तक्षय से पूर्ण रक्षा हो सकती है ।
प्लूमर विन्सन सहलक्षण ( Plummer Vinson syndrome ) — यह एक लक्षण समूह है जिसमें निगरण कृच्छ्रता ( dysphagia ) के साथ-साथ उपवर्णिक सूक्ष्म कायाण्विक रक्तक्षय पाया जाता है । जिह्वा और ग्रसनी क्षेत्र का अधिच्छद सपाट ( bald ) और मसृण ( smooth ) या रूक्ष हो जाता है । साथ में अनीरोदता या अग्निमान्द्य रहता है । इस सह लक्षण के साथ उपवर्णिक रक्तक्षय अधिक पर परम वर्णिक भी देखा जा सकता है । यह प्रौढा स्त्रियों में होने वाला रोग है । मुख
कोण पर विदार ( cracks ) मिलते हैं जिनमें शूल होता रहता है। प्लीहा की वृद्धि तथा नखों की भिदुरता पाई जाती है । इस सह लक्षण के उपरान्त उपग्रसनिकीय क्षेत्र में कर्कट की उत्पत्ति होने की बहुत सम्भावना रहती है । कभी-कभी तो कर्कट की पूर्वावस्था यह सहलक्षण ही ले लेता है । लोह प्रयोग इसमें बहुत लाभकारी सिद्ध होता है ।
हरिदुत्कर्ष (Chlorosis )
इस रोग में हरिपीत वर्ण का रोगी हो जाता है । इस लिए इसे हमने यह संज्ञा प्रदान की है। इसका एक नाम ग्रीनसिकनेस का अर्थ भी हरा रोग है । यह रोग धीरेधीरे समाप्त हो रहा है। यह रोग केवल स्त्रियों में अधिक देखा जाता है । यह युवतियों का रोग है और १५ से २५ वर्ष की आयु तक होता है । यह लोहे के अभाव से उत्पन्न होने वाला रोग है जो आहार में लोहे की कमी से, मासिक धर्म काल में आर्तव के
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