SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 964
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुधिर वैकारिकी ८७५ सिराओं के अन्दर रुधिराणुओं का अंशन कई विर्षों में देखा जाता है। इन विर्षों में मुख्यतया सर्प विष ( snake venom) तो रक्त के कणों को रक्त के अन्दर ही गलाकर फेंक देता है । सालवर्सन तथा मल्लयुक्त ( arseniuretted hydrogen ) तथा त्रिभूयविरालय ( trinitro-toluol ) भी शोणांशन कर देते हैं। कुछ जीवाणु जैसे शोणांशिक मालागोलाणु ( streptococcus haemolyticus ) तथा वातिजन प्रावर गदाणु ( Cl. welchii ) भी शोणांशन किया करते हैं। किसी भी शोणांशिक लसी ( haemolytic serum ) के अन्तःक्षेपण से भी प्रायोगिक रूप में शोणांशन किया जा सकता है। ( paroxysmal hamoglobinurea ) और ( black. water fever ) में शोणांशन होता ही है। शोणांशन की प्रवृत्ति कुछ रोगों में बहुत घट भी जाती है । अल्प वर्णिक (hypochromic) रक्तक्षय तथा रक्तरहजन्य रक्तक्षयों ( erythroblastic anae mias ) में यह प्रवृत्ति अपने आप कम हो जाती है तथा ०.३६% तक शोणांशन नहीं होता । अवरोधात्मक कामला ( obstructive jaundice ) तथा घातक रक्तक्षय में भी यह घट जाती है (ग्रीन )। आतञ्चनजन्य परिवर्तन-सिरा से रक्त निकाल लेने पर वह सामान्यतया ३ से ५ मिनट में आतञ्चित हो (जम) जाता है । प्रयुक्त विधि की विभिन्नता के कारण १-२ मिनट का अन्तर भी देखा जा सकता है। आतञ्चन (coagulation) का समय यदि स्वाभाविक गति से बढ़ता है तो वह विकृति मानी जाती है क्योंकि ऐसे व्यक्ति का रक्तस्राव होने पर उसका रक्त बहुत देर में जमेगा अतः पर्याप्त मात्रा में रक्त बाहर चला जावेगा जो कभी-कभी जीवन को भी सङ्कट में डाल दे सकता है। शोणप्रियता ( हीमोफिलिया ), तन्तुजन की कमी ( fibrogen defficiency ) तथा जब रक्त में कोई आतञ्चविरोधी (anticoagulant ) तत्व प्रवाहित हो रहा है । तब आतञ्चन काल में वृद्धि हो जाया करती है। अनेक गम्भीर उपसर्ग, मादक द्रव्य तथा यकृद्विकारों में भी आतञ्चन काल बढ़ जाता है। रक्तावसादनगतिजन्य परिवर्तन-सैडीमेण्टेशनरेट या रक्तावसादनगति के ज्ञात करने के लिए कटलर, वैस्टरग्रीन तथा विण्ट्रोब ने अलग-अलग पद्धतियाँ अपनाई हैं। रुधिराणुओं के प्रत्यातञ्ची पदार्थ (anticoagulant ) की उपस्थिति में पात्र की तली में बैठने की गति को अवसादनगति कहा जाता है। परीचय रक्त में प्रत्यातची पदार्थ मिला कर एक लम्बी काँच की नली में भर देते हैं और जिस गति से रुधिराणु अवसादन करते हैं उसे नोट कर लेते हैं। कुछ विद्वान् एक दूरी निश्चित रखते हैं और उस तक पहुँचने में जो समय रुधिराणुओ को लगता है उसे नोट करते हैं। इस समय को अवसादनकाल (sedimentation time) कहा जाता है । कुछ विद्वान् समय निश्चित रखते हैं उतने समय में रुधिराणु कितनी दूरी तय कर पाये इसे नोट करते हैं यही अवसादन गति कही जाती है । स्वस्थ पुरुष में स्वाभाविक अवसादन गति १ मिलीमीटर प्रति ५ मिनट का औसत पड़ता है। रुधिराणु किस आकार का For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy